उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
विनोद ने दाएं हाथ से मां के चरणस्पर्श करके कहा, “मां, मैंने तुम्हें दु:खी करने के लिए यह नहीं कहा। यह सच है कि पिता जी के साथ ही हम लोगों का मेल बैठता था और उनसे हम लोगों ने सीखा है कि घर-गृहस्थी के लिए रुपया होना कितना आवश्यक है। इस हैट कोट को पहनकर विनू इतना बड़ा साहब नहीं बन गया कि छोटे भाई को खिलाने के डर से उचित-अनुचित का विचार न कर सके। लेकिन फिर भी कहता हूं कि उसे जाने दो। देश में जैसी हवा बह रही है इससे वह कुछ दिनों के लिए देश छोड़कर, कहीं दूसरी जगह जाकर काम में लग जाए तो इसमें उसका भी हित होगा और परिवार की रक्षा भी हो जाएगी। तुम तो जानती हो मां, उस स्वदेशी आंदोलन के समय कितना छोटा था। फिर भी उसी के प्रताप से पिता जी की नौकरी जाने की नौबत आ गई थी।”
करुणामयी बोली, “नहीं, नहीं, अब अपूर्व वह सब नहीं कर सकता।”
विनोद बोला, “मां, सभी देशों में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी जाति ही अलग होती है। अपूर्व उसी जाति का है। देश की मिट्टी ही इसके शरीर का मांस है, देश का जल ही इनकी धमनियों का रक्त है। देश के विषय में इनका विश्वास कभी मत करना मां, नहीं तो धोखा खाओगी। बल्कि अपने इस म्लेच्छ विनू को, अपने उस चोटीधारी, गीता पढ़े एम.एस-सी. पास अपूर्व से अधिक ही अपना समझना।”
पुत्र की इन बातों पर मां ने विश्वास तो नहीं किया लेकिन मन-ही-मन शंकित हो उठी। देश के पश्चिमी क्षितिज पर जो भयानक मेघ के लक्षण प्रकट हुए हैं, उसे वह जानती थी। याद आया कि उस समय तो अपूर्व के पिता जीवित थे, लेकिन अब नहीं हैं।
विनोद ने मां के मन की बात जान ली। लेकिन क्लब जाने की जल्दी में बोला, “अच्छा मां, वह कल ही तो जा नहीं रहा। सब लोग बैठकर जो निश्चय करेंगे, कर लेंगे,” कहकर तेजी से बाहर निकल गया।
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