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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपने ब्राह्मणत्व की बड़ी सतर्कता से रक्षा करते हुए अपूर्व एक जलयान द्वारा रंगून के घाट पर पहुंच गया। वोथा कम्पनी के एक दरबान और एक मद्रासी कर्मचारी ने अपने इस नए मैनेजर का स्वागत किया। तीस रुपए महीने का एक कमरा ऑफिस के खर्चे से यथासम्भव सजा हुआ तैयार है, यह समाचार देने में उन लोगों ने देर नहीं की।

समुद्र-यात्रा की झंझटों के बाद वह खूब हाथ-पैर फैलाकर सोना चाहता था। ब्राह्मण साथ था। घर में अत्यंत असुविधा होते हुए भी इस भरोसे के आदमी को साथ भेजकर मां को बहुत कुछ तसल्ली मिल गई थी। केवल ब्राह्मण रसोइया ही नहीं बल्कि भोजन बनाने के लिए कुछ चावल, दाल, घी, तेल पिसा हुआ मसाला यहां तक कि आलू, परवल तक वह साथ देना नहीं भूली थीं।

गाड़ी आ जाने पर मद्रासी कर्मचारी तो चले गए लेकिन रास्ता दिखाने के लिए दरबान साथ चल दिया। दस मिनट में ही गाड़ी जब मकान के सामने पहुंचकर रुकी तो तीस रुपए किराए के मकान को देखकर अपूर्व हतबुद्धि-सा खड़ा रह गया।

मकान बहुत ही भद्दा है। छत नहीं है। सदर दरवाजा नहीं है। आंगन समझो या जो कुछ, इस आने-जाने के रास्ते के अलावा और कहीं तनिक भी स्थान नहीं है। एक संकरी काठ की सीढ़ी, रास्ते के छोर से आरम्भ होकर सीधी तीसरी मंजिल पर चली गई है। इस पर चढ़ने-उतरने में कहीं अचानक पैर फिसल जाए तो पहले पत्थर के बने राजपथ पर फिर अस्पताल में और फिर तीसरी स्थिति को न सोचना अच्छा है। नया आदमी है इसलिए हर कदम बड़ी सावधानी से रखते हुए दरबान के पीछे-पीछे चलने लगा। दरबान ने ऊपर चढ़ने के बाद दाईं ओर में दो मंजिले के एक दरवाजे को खोलकर बताया।

“साहब, यही आपके रहने का कमरा है।”

दाईं ओर इशारा करके अपूर्व ने पूछा, “इसमें कौन रहता है?”

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