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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


दरबान बोला, “एक चीनी साहब हैं।”

अपूर्व ने पूछा, “ऊपर तिमंजिले पर कौन रहता है?”

दरबान ने कहा, “एक काले-काले साहब हैं।”

कमरे में कदम रखते ही अपूर्व का मन बहुत ही खिन्न हो उठा। लकड़ी के तख्ते लगाकर एक-दूसरे की बगल में छोटी-बड़ी तीन कोठरियां बनी हुई हैं। इस मकान की सारी चीजें लकड़ी की हैं। दीवारें, फर्श, छत और सीढ़ी-सभी लकड़ी की हैं। आग की याद आते ही संदेह होता है कि इतना बड़ा और सर्वांग सुंदर लाक्षागृह तो सम्भव है दुर्योधन भी अपने पांडव भाइयों के लिए न बनवा सका होगा। इसी मकान में इष्ट-मित्र, आत्मीय-स्वजनों, मां और भाभियों आदि को छोड़कर रहना पड़ेगा। अपने को संभालकर, थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर हर चीज को देखकर तसल्ली हुई कि नल में अभी तक पानी है। स्नान और भोजन दोनों ही हो सकते हैं। अपूर्व ने रसोइए से कहा, “महाराज, मां ने तो सभी चीजें साथ भेजी हैं। नहाकर कुछ बना लो। तब तक मैं दरबान के साथ सामान ठीक कर लूं।”

रसोई में कोयला मौजूद था। लेकिन चूल्हे में कालिख लगी थी। पता नहीं इसमें पहले कौन रहता था और क्या पकाया था? यह सोचकर उसे बड़ी घृणा हुई। महाराज से बोला, “एक उठाने वाला दम चूल्हा होता तो बाहर वाले कमरे में बैठकर कुछ दाल-चावल बना लिया जाता, लेकिन कौन जाने, इस देश में मिलेगा या नहीं।”

दरबान बोला, “पैसे दीजिए, अभी दस मिनट में ले आता हूं।”

वह रुपया लेकर चला गया।

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