उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“जी नहीं, वे पेंठ करने गये हैं? माताजी हैं, आइए।” कहता हुआ वह आगे हो लिया, और काफी दुविधा के साथ मैं उसके पीछे-पीछे चला। कभी किसी जमाने में इस मकान में सदर दरवाजा भी शायद कहीं रहा होगा, पर फिलहाल उसका निशान तक बिला गया है। अतएव, भूतपूर्व ढेंकी-शाला में होकर अन्त:पुर में प्रवेश करके निश्चय ही मैंने उसकी मर्यादा की उल्लंघन नहीं किया। प्रांगण में उपस्थित होते ही सुनन्दा को देखा। उन्नीस-बीस वर्ष की एक साँवली लड़की है, इस मकान की तरह ही बिल्कुल आभरण-शून्य। सामने के कम-चौड़े बरामदे के एक किनारे बैठी मूडी¹ भून रही थी- और शायद राजलक्ष्मी के आगमन के साथ-ही-साथ उठकर खड़ी हो गयी है- उसने मेरे लिए एक फटा-पुराना कम्बल का आसन बिछाकर नमस्कार किया। कहा, “बैठिए।” लड़के से कहा, “अजय, चूल्हे में आग है, जरा तमाखू तो सुलगा दे बेटा।” फिर राजलक्ष्मी बिना आसन के पहले ही बैठ गयी थी, उसकी तरफ देखकर जरा मुसकराते हुए कहा, “लेकिन आपको मैं पान न दे सकूँगी। पान घर में है ही नहीं।” (¹ चावलों का नमकीन पानी में भिगोकर बालू में भूना हुआ चबैना। )
हम लोग कौन हैं, अजय शायद इस बात को जान गया था। वह अपनी गुरु-पत्नी की बात पर सहसा अत्यन्त व्यस्त होकर बोल उठा, “नहीं हैं? तो पान शायद आज अचानक निबट गये होंगे माँ?”
सुनन्दा ने उसके मुँह की तरफ क्षण-भर मुसकराकर देखते हुए कहा, “पान आज अचानक निबट गये हैं, या सिर्फ एक दिन ही अचानक आ गये थे अजय?” यह कहकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ी, फिर राजलक्ष्मी से बोली, “उस रविवार को छोटे महन्त महाराज के आने की बात थी, इसी से एक पैसे के पान मँगाए गये थे- उसके हो गये करीब दस दिन। यह बात है, इसी से हमारा अजय एकदम आश्चर्य-चकित हो गया, पान चटसे निबट कैसे गये?” इतना कहकर वह फिर हँस दी। अजय अत्यन्त अप्रतिभ होकर कहने लगा, “वाह, ऐसा है! सो होने दो न- निबट जाने दो...”
राजलक्ष्मी ने हँसते हुए सदय कण्ठ से कहा, “बात तो ठीक ही है, बहिन, आखिर यह ठहरे मर्द, ये कैसे जान सकते हैं कि तुम्हारी गिरस्ती में कौन-सी चीज़ निबट गयी है?”
अजय कम-से-कम एक आदमी को अपने अनुकूल पाकर कहने लगा, “देखिए तो! और माताजी सोचती हैं कि...”
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