उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
सुनन्दा ने उसी तरह हँसते हुए कहा, “हाँ, माँ सोचती तो है ही! नहीं जीजी, हमारा अजय ही घर की 'गृहिणी' है- यह सब जानता है। सिर्फ एक बात मंजूर नहीं कर सकता कि यहाँ कोई तकलीफ है और बाबूगीरी तक नदारद है!”
“क्यों नहीं कर सकता! वाह, बाबूगीरी क्या अच्छी चीज है! वह तो हमारे...” कहते-कहते वह रुक गये और बात बिना खतम किये ही शायद मेरे लिए तमाखू सुलगाने बाहर चला गया।
सुनन्दा ने कहा, “ब्राह्मण-पण्डित के घर अकेली हर्र ही काफी है, ढूँढ़ने पर शायद एक-आध सुपारी भी मिल सकती है- अच्छा, देखती हूँ...” यह कहकर वह जाना ही चाहती थी कि राजलक्ष्मी ने सहसा उसका आँचल पकड़कर कहा, “हर्र मुझसे नहीं बरदाश्त होगी बहिन, सुपारी की भी जरूरत नहीं। तुम मेरे पास जरा स्थिर होकर बैठो, दो-चार बातें तो कर लूँ।” यह कहकर उसने एक प्रकार से जबरदस्ती ही उसे अपने पास बिठा लिया।
आतिथ्य के दायित्व से छुटकारा पाकर क्षण-भर के लिए दोनों ही नीरव हो रहीं। इस अवसर पर मैंने और एक बार सुनन्दा को नये सिरे से देख लिया। पहले तो यह मालूम हुआ कि यदि इसे कोई स्वीकार न करे तो वास्तव में यह 'दरिद्रता' वस्तु संसार में कितनी अर्थहीन और निस्सार प्रमाणित हो सकती है! यह हमारे साधारण बंगाली घर की साधारण नारी है। बाहर से इसमें कोई भी विशेषता नहीं दीखती, न तो रूप है और न गहने-कपड़े ही। इस टूटे-फूटे घर में जिधर देखो उधर केवल अभाव और तंगी ही की छाया दिखाई देती है। परन्तु फिर भी यह बात भी साथ ही साथ दृष्टि से छिपी नहीं रहती कि सिर्फ छाया ही है, उससे बढ़कर और कुछ भी नहीं। अभाव के दु:ख को इस नारी ने सिर्फ अपनी आँखों के इशारे से मना करके दूर रख छोड़ा है- इतनी उसमें हिम्मत ही नहीं कि वह जबरदस्ती भीतर घुस सके। और तारीफ यह कि कुछ महीने पहले ही इसके सब कुछ विद्यमान था- घर-द्वार, स्वजन-परिजन, नौकर-चाकर-हालत अच्छी थी, किसी बात की कमी नहीं थी- सिर्फ एक कठोर अन्याय का तत्वोसधिक प्रतिवाद करने के लिए अपना सब कुछ छोड़ आई है- जीर्ण वस्त्र की तरह सब त्याग आई है। मन स्थिर करने में उसे एक पहर भी समय नहीं लगा। उस पर भी मज़ा यह कि कहीं भी किसी अंग में इसके कठोरता का नामो-निशान तक नहीं।
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