उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने सहसा मेरी ओर मुखातिब होकर कहा, “मैं समझती थी कि सुनन्दा उमर में खूब बड़ी होगी। पर हे भगवान, यह तो अभी बिल्कुल लड़की ही है!”
अजय शायद अपने गुरुदेव के हुक्के पर ही तमाखू भर के ला रहा था, सुनन्दा ने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, “लड़की कैसे हूँ! जिसके इतने बड़े-बड़े लड़के हों, उसकी उमर कहीं कम होती होगी!” यह कहकर वह हँसने लगी। खासी स्वच्छन्द सरल हँसी थी उसकी। अजय के यह पूछने पर कि मैं खुद ही चूल्हे से आग ले लूँ या नहीं, उसने परिहास करते हुए कहा, “मालूम नहीं किस जात के लड़के हो तुम बेटा, जरूरत नहीं तुम्हें चूल्हा छूने की।” असल में बात यह थी कि लड़के के लिए जलता अंगारा चूल्हे में से निकालना कठिन था, इससे उसने खुद ही जाकर आँच उठाके चिलमपर रख दी, और चेहरे पर वैसी ही हँसी लिए हुए वह फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गयी। साधारण ग्राम्य-रमणी-सुलभ हँसी-मसखरी से लेकर बातचीत और आचरण तक कहीं किसी बात में उसकी कोई विशेषता नहीं पकड़ी जा सकती, फिर भी, इतने ही अरसे जो मामूली-सा परिचय मुझे मिला है वह कितना असाधारण है! इस असाधारणता का हेतु दूसरे ही क्षण में हम दोनों के समक्ष परिस्फुट हो उठा। अजय ने मेरे हाथ में हुक्का देते हुए कहा, “माताजी, तो अब उसे उठाकर रख दूँ?”
सुनन्दा के इशारे से अनुमति देने पर उसकी दृष्टि अनुसरण करके देखा कि पास ही एक लकड़ी के पीढ़े पर बड़ी भारी एक मोटी पोथी इधर-इधर बिखरी पड़ी है। अब तक किसी ने भी उसे नहीं देखा था। अजय ने उसके पन्ने सँभालते हुए क्षुण्ण स्वर से कहा, “माताजी, 'उत्पत्ति-प्रकरण' तो आज भी समाप्त नहीं हुआ, न जाने कब तक होगा! अब पूरा नहीं होने का।”
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