उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने पूछा, “वह कौन-सी पोथी है, अजय?”
“योगवासिष्ठ।”
“तुम्हारी माँ मूड़ी भून रही थी और तुम सुना रहे थे?”
“नहीं, मैं माताजी से पढ़ता हूँ।”
अजय के इस सरल और संक्षिप्त उत्तर से सुनन्दा सहसा मानो लज्जा से सुर्ख हो उठी, झटपट बोल उठी, “पढ़ाने लायक विद्या तो इसकी माँ के पास खाक-धूल भी नहीं है। नहीं जीजी, दोपहर को अकेली घर का काम करती हूँ, वे तो अक्सर रहते नहीं, ये लड़के पुस्तक लेकर क्या-क्या बकते चले जाते हैं, उसका तीन-चौथाई तो मैं सुन ही नहीं पाती। इसको क्या है, जो मन में आया सो कह दिया।”
अजय ने अपने 'योगवासिष्ठ' को लेकर प्रस्थान किया, और राजलक्ष्मी गम्भीर मुँह बनाए स्थिर होकर बैठी रही। कुछ ही क्षण बाद सहसा एक गहरी साँस लेकर बोली, “आसपास ही कहीं मेरा घर होता तो मैं भी तुम्हारी चेली हो जाती, बहिन। एक तो कुछ जानती ही नहीं, उस पर आह्निक-पूजा के शब्दों को भी ठीक तौर से बोल सकती; सो भी नहीं।”
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