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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


मन्त्रोच्चारण के सम्बन्ध में उसका संदिग्ध मानसिक खेद मैंने बहुत बार सुना है। इसका मुझे अभ्यास हो गया था। परन्तु सुनन्दा ने पहले-पहल सुनकर भी कुछ नहीं कहा। वह सिर्फ जरा-सा मुसकराकर रह गयी। मालूम नहीं, उसने क्या समझा। शायद सोचा कि जिसका तात्पर्य नहीं समझती, प्रयोग नहीं जानती, उसे सिर्फ अर्थहीन पाठ-मात्र की शुद्धता पर इतनी दृष्टि क्यों? हो सकता है कि यह उसके लिए भी कोई नयी बात न हो, अपने यहाँ के साधारण हिन्दू घराने की स्त्रियों के मुँह से ऐसी सकरुण, लोभ और मोह की बातें उसने बहुत बार सुनी हैं- इसका उत्तर देना या प्रतिवाद करना भी वह आवश्यक नहीं समझती। अथवा यह सब कुछ भी न हो। सिर्फ स्वाभाविक विनय-वश ही मौन रही हो। फिर भी इतना तो बिना खयाल किये रहा ही न गया कि उसने अगर आज अपने इस अपरिचित अतिथि को निहायत ही साधारण औरतों के समान छोटा करके देखा हो, तो फिर एक दिन उसे अत्यन्त अनुताप के साथ अपना मत बदलने की जरूरत पड़ेगी।

राजलक्ष्मी ने पलक मारते ही अपने को सँभाल लिया। मैं जानता हूँ कि कोई मुँह खोलता है तो वह उसके मन की बात जान जाती है। फिर वह मन्त्र-तन्त्र के किनारे होकर भी नहीं निकली। और थोड़ी देर बाद ही उसने खालिस घर-गृहस्थी की और घरेलू बातें शुरू कर दीं। उन दोनों के मृदु कण्ठ की सम्पूर्ण आलोचना न तो मेरे कानों में ही गयी, और न मैंने उधर कान लगाने की कोशिश ही की बल्कि मैं तो तर्कालंकार के हुक्के में अजयदत्त की सूखी और कठोर तमाखू को खतम करने में ही जी-जान से जुट गया।

दोनों रमणियाँ मिलकर अस्पष्ट मृदु भाव से संसार-यात्रा के विषय में किस जटिल तत्व का समाधान करने लगीं, सो वे ही जानें, किन्तु उनके पास हुक्का हाथ में लिये बैठे-बैठे मुझे मालूम हुआ कि आज सहसा एक कठिन प्रश्न का उत्तर मिल गया। हमारे विरुद्ध एक भद्दी शिकायत है कि स्त्रियों को हमने हीन बना रक्खा है। यह कठिन काम हमने किस तरह किया है, और कहाँ इसका प्रतिकार है, इस बात पर मैंने अनेक बार विचार करने की कोशिश की है, परन्तु, आज सुनन्दा को यदि ठीक इस तरह अपनी आँखों न देखता तो शायद संशय हमेशा के लिए बना ही रह जाता। मैंने देश और विदेश में तरह-तरह की स्त्री-स्वाधीनता देखी है। उसका जो नमूना बर्मा मुल्क में पैर रखते ही देखा था, वह कभी भूलने की चीज नहीं। तीन-चारेक बर्मी सुन्दरियों को जब मैंने राजपथ पर खड़े-खड़े धौरे-दुपहर एक हट्टे-कट्टे जवान मर्द को ईख के टुकड़ों से पीटते हुए देखा था तब मैं उसी दम मारे गुदगुदी के रोमांचित होकर पसीने से तर-ब-तर हो गया था। अभया ने मुग्ध दृष्टि से निरीक्षण करते हुए कहा था, 'श्रीकान्त बाबू, हमारी बंगाली स्त्रियाँ अगर इसी तरह...'

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