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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


मेरे चचा साहब एक बार दो मारवाड़ी महिलाओं के नाम नालिश करने गये थे। उन लोगों ने रेलगाड़ी में मौका पाते ही चचा साहब के नाक-कान की प्रबल पराक्रम के साथ मलाई कर दी थी। सुनकर मेरी चाची अफसोस करके बोली थीं, “अच्छा होता यदि अपने बंगालियों में घर-घर इस बात का चलन होता!” होता तो मेरे चाचा साहब उसका घोरतर विरोध करते। परन्तु, इससे नारी-जाति की हीन अवस्था का प्रति-विधान हो जाता, सो निस्सन्देह नहीं कहा जा सकता। मैं आज सुनन्दा के भग्न-गृह के छिन्न आसन पर बैठा हुआ चुपचाप और निस्सन्देह रूप से अनुभव कर रहा था कि यह कहाँ और क्यों कर हो सकता है। सिर्फ एक 'आइए' कहकर अभ्यर्थना करने के सिवा उसने मेरे साथ दूसरी कोई बातचीत ही नहीं की, और राजलक्ष्मी के साथ भी ऐसी किसी बड़ी बात की चर्चा में वह लग गयी हो, सो भी नहीं; परन्तु, उसने जो अजय के मिथ्याडम्बर के उत्तर में हँसते हुए जता दिया कि इस घर में पान नहीं है और खरीदने का सामर्थ्य भी नहीं-यही वह दुर्लभ वस्तु है। उसकी सब बातों के बीच में यह बात मानो मेरे कानों में गूँज ही रही थी। उसके संकोच-लेश-शून्य इतने से परिहास से दरिद्रता की सम्पूर्ण लज्जा ने मारे शरम के न जाने कहाँ जाकर मुँह छिपा लिया, फिर उसके दर्शन ही नहीं मिले। एक ही क्षण में मालूम हो गया कि इस टूटे-फूटे मकान, फटे-पुराने कपड़ों, टूटी-फूटी घर की चीजों और घर के दु:ख-दैन्य-अभावों के बीच इस निराभरण महिला का स्थान बहुत ऊँचा है। अध्यापक पिता ने देने के नाम यही दिया कि अपनी कन्या को बहुत ही जतन के साथ धर्म और विद्या दान करके उसे श्वसुर-कुल में भेज दिया; उसके बाद वह जूते-मोजे पहनेगी या घूँघट हटाकर सड़कों पर घूमेगी, अथवा अन्याय का प्रतिवाद करने के लिए पति-पुत्र को लेकर खण्डहर घर में रहेगी और वहाँ मूड़ी भूनेगी या योगवासिष्ठ पढ़ाएगी, इस बात की चिन्ता उसके लिए बिल्कु्ल ही सारहीन थी। महिलाओं को हमने हीन बनाया है या नहीं, यह बहस फिजूल की है, परन्तु इस दिशा में अगर हम उन्हें वंचित रखते हैं तो उस कर्म का फल भोगना अनिवार्य है।

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