लोगों की राय

उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


अजय अगर 'उत्पत्ति-प्रकरण' की बात न कहता तो सुनन्दा की शिक्षा के विषय में हम कुछ जान भी न सकते। उसके मूड़ी भूनने से लेकर सरल और मामूली हँसी-मजाक तक किसी भी बात में 'योगवासिष्ठ' की तेजी ने उझकाई तक नहीं मारी। और साथ ही, पति की अनुपस्थिति में अपरिचित अतिथि की अभ्यर्थना करने में भी उसे कहीं से कुछ बाधा नहीं मालूम हुई। निर्जन घर में एक सत्रह-अठारह वर्ष के लड़के की इतने सहज-स्वभाव और आसानी से वह माँ हो गयी है कि शासन और संशय की रस्सी-अस्सी से उसे बाँध रखने की कल्पना तक उसके पति के दिमाग में कभी नहीं आई। हालाँकि कि इसी का पहरा देने के लिए घर-घर न जाने कितने पहरेदारों की सृष्टि होती रहती है!

तर्कालंकार महाशय लड़के को साथ लेकर पेंठ करने गये थे। उनसे मिलकर जाने की इच्छा थी, मगर इधर अबेर हुई जा रही रही थी। इस गरीब गृहलक्ष्मी का न जाने कितना काम पड़ा होगा, यह जानकर राजलक्ष्मी उठ खड़ी हुई, और विदा लेकर बोली, “आज जा रही हूँ, अगर नाखुश न होओ तो फिर आऊँगी।”

मैं भी उठ खड़ा हुआ, बोला, “मुझे भी बात करने के लिए कोई आदमी नहीं, अगर अभय-दान दें तो कभी-कभी चला आया करूँ।”

सुनन्दा ने मुँह से कुछ नहीं कहा, पर हँसते हुए गरदन हिला दी। रास्ते में आते-आते राजलक्ष्मी ने कहा, “बड़े मजे की स्त्री है। जैसा पति वैसी ही पत्नी। भगवान ने इन्हें खूब मिलाया है।”

मैंने कहा, “हाँ।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “इनके उस घर की बात आज नहीं छेड़ी। कुशारी महाशय को अब तक अच्छी तरह पहिचान न सकी, पर ये दोनों देवरानी-जिठानी बड़ी मजे की हैं।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book