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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


मैंने कहा, “बात तो ऐसी ही है। मगर तुममें तो आदमी को वश करने की अद्भुत शक्ति है, देखो न कोशिश करके अगर इनमें मेल करा सको।”

राजलक्ष्मी ने जरा दबी हँसी हँसकर कहा, “शक्ति हो सकती है, पर तुम्हें वश कर लेना उसका सुबूत नहीं। कोशिश करने पर वह तो और भी बहुतेरी कर सकती हैं।”

मैंने कहा, “हो भी सकता है। मगर, जब कि कोशिश का मौका ही नहीं आया, तो बहस करने से भी कुछ हाथ न आएगा।”

राजलक्ष्मी ने उसी तरह मुसकराते हुए कहा, “अच्छा जी, अच्छा। यह मत समझ लो कि दिन बीत ही चुके हैं।”

आज दिन-भर से न जाने कैसी बदली-सी छाई हुई थी। दोपहर का सूर्य असमय में ही एक काले बादल में छिप जाने से सामने का आकाश रंगीन हो उठा था। उसी की गुलाबी छाया ने सामने के कठोर धूसर मैदान और उसके एक किनारे के बाँसों के झाड़ और दो-तीन इमली के पेड़ों पर सोने का पानी फेर दिया था। राजलक्ष्मी के अन्तिम आरोप का मैंने कोई जवाब नहीं दिया, परन्तु भीतर का मन मानो बाहर की दस दिशाओं के समान ही रंगीन हो उठा। मैंने कनखियों से उसके मुँह की ओर ताककर देखा कि उसके ओठों पर की हँसी अब तक पूरी तौर से बिलाई नहीं है। विगलित स्वर्ण-प्रभा में वह अतिशय परिचित मुख बहुत ही अपूर्व मालूम पड़ा। हो सकता है कि वह सिर्फ आकाश ही का रंग न हो; हो सकता है कि जो प्रकाश मैं और एक नारी के पास से अभी-अभी हाल ही चुरा लाया हूँ, उसी की अपूर्व दीप्ति इसके भी हृदय में खेलती फिर रही हो। रास्ते में हम दोनों के सिवा और कोई नहीं था। उसने सामने की ओर अंगुली दिखाते हुए कहा, “तुम्हारी छाया क्यों नहीं पड़ती, बताओ तो?” मैंने गौर से देखा कि पास ही दाहिनी ओर हम दोनों की अस्पष्ट छाया एक होकर मिल गयी है। मैंने कहा, “चीज होती है तो छाया पड़ती है- शायद अब वह नहीं है।”

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