उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“पहले थी?”
“ध्यान से नहीं देखा, कुछ याद नहीं पड़ता।”
राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, “मुझे याद पड़ता है-नहीं थी। थोड़ी उमर से ही उसे देखना सीख गयी थी।” यह कहते हुए उसने परितृप्ति की साँस लेकर फिर कहा, “आज का दिन मुझे बहुत ही अच्छा लगा है। मालूम होता है इतने दिनों बाद मुझे एक साथी मिला है।” यह कहकर उसने मेरी ओर देखा। मैंने कुछ कहा नहीं, पर मन-ही-मन यह निश्चित समझ लिया कि उसने बिल्कुल सच कहा है।
घर जा पहुँचा। पर पैर धोने की छुट्टी न मिली। शान्ति और तृप्ति दोनों ही एक साथ गायब हो गयी। देखा कि बाहर का आँगन आदमियों से भरा हुआ है; दस-पन्द्रह आदमी बैठे हैं जो हमें देखते ही उठ खड़े हुए। रतन शायद अब तक व्याख्यान झाड़ रहा था, उसका चेहरा उत्तेजना और निगूढ़ आनन्द से चमक रहा था। वह पास आकर बोला, “माँजी, मैं बार-बार जो कहता था, वही बात हुई।”
राजलक्ष्मी ने अधीर भाव से कहा, “क्या कहता था मुझे याद नहीं, फिर से बता।”
रतन ने कहा, “नवीन को थाने के लोग हथकड़ी डालकर कमर बाँध के ले गये हैं।”
“बाँध के ले गये हैं? क्या किया था उसने?”
“मालती को एकदम मार डाला है।”
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