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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


उनकी कुछ बातें सुनने के बाद ही मैं न जाने कैसा अन्यमनस्य-सा हो गया था। इसका कारण भी था। मैंने सोचा था कि इनकी बातों में सिवा इसके कि एक तरफ अपने पक्ष का स्तुतिवाद-दया, दाक्षिण्य, तितिक्षा आदि जो कुछ भी शास्त्रोक्त सद्गुणावली मनुष्य-जन्म में सम्भव हो सकती है, उन सबकी विस्तृत आलोचना- और दूसरी तरफ उसके विपरीत जितना भी कुछ आरोप हो सकता है, सन्, तारीख, महीना और अड़ोसी-पड़ोसियों की गवाहियों के सहित उन सबका विशद वर्णन हो, ओर हो ही क्या सकता है? शुरू में थी भी यही बात- परन्तु सहसा उनके कण्ठ-स्वर के आकस्मिक परिवर्तन से उनकी तरफ मेरा ध्यान आकर्षित हुआ। मैंने ज़रा विस्मित होकर ही पूछा, “क्या हुआ है?” वे क्षण-भर मेरे चेहरे की तरफ देखती रहीं, फिर रुँधे हुए गले से कहने लगीं, “होने को अब बाकी क्या रहा है बाबू? सुना है कि कल शायद देवरजी खुद हाट में जाकर बैंगन बेच रहे थे।”

बात पर ठीक से विश्वास नहीं हुआ और मन चंगा होता तो शायद हँस भी पड़ता। मैंने कहा, “अध्यापक आदमी ठहरे वे, अचानक बैंगन उन्हें मिल कहाँ से गये, और बेचने गये तो क्यों?”

कुशारी-गृहिणी ने कहा, “उसी अभागिनी की बदौलत। घर में ही शायद कुछ बैंगन पैदा हुए थे, इसी से उन्हें बेचने भेज दिया हाट में। इस तरह दुश्मनी निभाने से भला गाँव में कैसे टिका जा सकता है, बताइए?”

मैंने कहा, “मगर इसे दुश्मनी निभाना क्यों कह रही हैं? वे तो आपकी किसी भी बात में हैं नहीं। तंगी आ गयी है, यदि अपनी चीज़ बेचने गये, तो इसमें आपको शिकायत क्यों हो?”

मेरी बात सुनकर वे विधल की भाँति मेरी ओर देखती रहीं, फिर बोलीं, “अगर आपका यही फैसला है तो मुझे आगे कुछ भी कहने को नहीं है, और न मालिक के सामने मेरी कोई फर्याद ही है- मैं जाती हूँ।”

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