उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कहते-कहते अन्त में कण्ठ बिल्कुल रुक-सा आया, यह देखकर मैंने धीरे-से कहा, “इससे तो बल्कि आप अपनी मालकिनजी से कहें तो ठीक हो, शायद आपकी बातें समझ भी सकेंगी, और आपका उपकार भी कर सकेंगी।”
वे सिर हिलाकर कह उठीं, “अब मैं किसी से कुछ नहीं कहना चाहती, और किसी को मेरा उपकार करने की जरूरत भी नहीं।” यह कहकर सहसा उन्होंने अपने आँचल से आँखों को पोंछते हुए कहा, “शुरू-शुरू में वे कहा करते थे कि महीने-दो महीने बीतने दो, आप ही लौट आएगा। उसके बाद हिम्मत बँधाया करते थे कि बनी न रहो और दो-एक महीने चुपचाप, सब सुधर जायेगा-पर ऐसी ही झूठी आशा में यह दूसरा साल लगना चाहता है। लेकिन कल जब सुना कि आँगन में लगे हुए बैंगन तक बेचने की नौबत आ गयी, तब फिर किसी की बातों पर मुझे भरोसा न रहा। अभागी सारी गृहस्थी को तहस-नहस कर डालेगी, पर उस घर में पाँव न रक्खेगी। बाबू, औरत की जात ऐसी पत्थर-सी हो सकती है, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।”
वे फिर कहने लगीं, “वे उसे कभी नहीं पहिचान सके, मगर मैं पहिचान गयी थी। शुरू-शुरू मैं इसका उसका नाम लेकर छिपा-छिपाकर चीज़-वस्तु भेजा करती थी, वे कहा करते कि सुनन्दा जान-बूझकर ही लेती है- लेकिन ऐसा करने से उसका दिमाग़ ठिकाने न आएगा। मैंने भी सोचा कि शायद ऐसा ही हो। मगर एक दिन सब भ्रम दूर हो गया। न मालूम कैसे उसे पता लगा, सो मैंने जो कुछ भिजवाया था, सबका सब एक आदमी के सिर पर लादकर वह मेरे आँगन में फेंक गयी। मगर इससे भी उन्हें होश न आया- मैं ही समझी।”
अब आकर उनके मन की बात मेरी समझ में आई। मैंने सदय कण्ठ से कहा, “अब आप क्या करना चाहती हैं?- अच्छा, वे क्या आप लोगों के विरुद्ध कोई बात या किसी तरह की शत्रुता निभाने की कोशिश कर रहे हैं?”
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