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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


कुशारी-गृहिणी ने फिर एक बार रोकर अपनी तकदीर ठोकते हुए कहा, “फूटी तकदीर। तब तो कोई उपाय भी निकल आता। उसने हम लोगों को ऐसा छोड़ दिया है कि मानो कभी उसने हम लोगों को आँखों से देखा तक न हो, नाम भी न सुना हो। ऐसी कठोर, ऐसी पत्थर है वह। हम दोनों को सुनन्दा अपने माँ-बाप से भी ज्यादा चाहती थी; पर जिस दिन से उसने सुना कि उसके जेठ की सम्पत्ति पाप की सम्पत्ति है, उसी दिन से उसका सारा हृदय जैसे पत्थर का हो गया। पति-पुत्र को लेकर वह दिन-पर-दिन सूख-सूख के मर जायेगी, पर उसमें से दमड़ी भी न छुएगी। लेकिन बताइए भला, इतनी बड़ी जायदाद क्या यों ही बहा दी जा सकती है बाबू? वह ऐसी दया-माया-शून्य है कि बाल-बच्चों के साथ बिना खाए-पिए भूखों भी रह सकती है, मगर हम तो ऐसा नहीं कर सकते।”

क्या जवाब दूँ, कुछ सोच न सका, सिर्फ आहिस्ते से बोला, “अजीब औरत है।”

दिन उतरता जा रहा था, कुशारी-गृहिणी चुपचाप गरदन हिलाकर मेरी बात का समर्थन करती हुई उठ खड़ी हुईं। फिर सहसा दोनों हाथ जोड़कर कह उठीं, “सच कहती हूँ बाबू, इनके बीच में पड़कर मेरी छाती के मानो टुकड़े हुए जा रहे हैं। लेकिन, इधर सुनने में आया है कि वह बहूजी का कहना बहुत मानती है, क्या कोई उपाय नहीं हो सकता? मुझसे तो अब नहीं सहा जाता।”

मैं चुप बना रहा। वे भी और कुछ न कह सकीं-उसी तरह आँसू पोंछते चुपचाप बाहर चली गयीं।

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