लोगों की राय

उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास

13

मनुष्य की परलोक की चिन्ता में शायद पराई चिन्ता के लिए कोई स्थान नहीं। नहीं तो, मेरे खाने-पहरने की चिन्ता राजलक्ष्मी छोड़ बैठी, इतना बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या हो सकता है? इस गंगामाटी में आए ही कितने दिन हुए होंगे, इन्हीं कुछ दिनों में सहसा वह कितनी दूर हट गयी! अब मेरे खाने के बारे में पूछने आता है रसोइया और मुझे खिलाने बैठता है रतन। एक हिसाब से तो जान बची, पहले की सी जिद्दा-जिद्दी अब नहीं होती। कमजोरी की हालत में अब ग्यारह बजे के भीतर न खाने से बुखार नहीं आता। अब तो जो इच्छा हो वह, और जब चाहूँ तब, खाऊँ। सिर्फ रतन की बार-बार की उत्तेजना और महाराज की सखेद आत्म-भर्त्सना से अल्पाहार का मौका नहीं मिलता- वह बेचारा म्लान मुख से बराबर यही सोचा करता है कि उसके बनाने के दोष से ही मेरा खाना नहीं हुआ। किसी तरह इन्हें सन्तुष्ट करके बिस्तर पर जाकर बैठता हूँ। सामने वही खुला जँगला, और वही ऊसर प्रान्त की तीव्र तप्त हवा। दोपहर का समय जब सिर्फ इस छाया-हीन शुष्कता की ओर देखते-देखते कटना ही नहीं चाहता तब एक प्रश्न मुझे सबसे ज्यादा याद आया करता है, कि आखिर हम दोनों का सम्बन्ध क्या है? प्यार वह आज भी करती है, इस लोक में मैं उसका अत्यन्त अपना हूँ, परन्तु लोकान्तर के लिए मैं उसका उतना ही अधिक पराया हूँ। उसके धर्म-जीवन का मैं साथी नहीं हूँ- हिन्दू घराने की लड़की होकर इस बात को वह नहीं भूली है कि वहाँ मुझ पर दावा करने के लिए उसके पास कोई दलील नहीं, सिर्फ यह पृथ्वी ही नहीं- इसके परे भी जो स्थान है, उसके लिए पाथेय सिर्फ मुझे प्यार करने से नहीं मिल सकेगा- यह सन्देह शायद उसके मन में खूब बड़े रूप में हो उठा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book