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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
रास्ते के मोड़ के ऊपर ही एक बनिये की दुकान थी। प्रवेश करते ही दुकानदार ने आदर के साथ मेरी अभ्यर्थना की। खाद्य द्रव्य की भीख न माँगकर जब मैं एक चिट्ठी लिखने का कागज और कलम-दावात माँग बैठा, तब उसने आश्चर्य तो किया, परन्तु इन्कार नहीं किया। उसी जगह बैठकर मैंने गौरी तिवारी के नाम पर एक पत्र लिखकर डाल दिया। समस्त विवरण विवृत करने के बाद अन्त में यह बात लिखना भी मैं नहीं भूला कि लड़की की बहिन हाल में ही फाँसी लगाकर मर गयी है और वह खुद भी, मार-पीट, अत्याचार सहन न कर सकने के कारण उसी पथ पर जाने का संकल्प कर चुकी है। तुम खुद आकर कुछ उपाय न करोगे तो क्या हो जायेगा, सो कहा नहीं जा सकता। बहुत सम्भव है कि तुम्हारी चिट्ठी-पत्री ये लोग तुम्हारी लड़की को न देते हों। उस पर ठिकाना लिखा, वर्दवान जिले में राजापुर ग्राम। मालूम नहीं कि वह पत्र गौरी तिवारी को पहुँचा या नहीं; और पहुँचा भी, तो उसने कुछ किया या नहीं। परन्तु वह घटना मेरे मन पर इस तरह मुद्रित हो गयी है कि, इतने समय बाद भी, पूरी तरह याद बनी हुई है; तथा इस आदर्श हिन्दू समाज के सूक्ष्माति-सूक्ष्म जाति-भेद के विरुद्ध एक विद्रोह का भाव आज भी मेरे मन से नहीं जाता।
सम्भव है, यह जाति-भेद का सिद्धान्त बहुत ही अच्छा हो; जब कि इसी उपाय से सनातन हिन्दू जाति आज तक बची हुई है, तब इसकी प्रचण्ड उपकारिता के सम्बन्ध संशय करने के लिए या प्रश्न करने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता। कहीं कोई दो बदनसीब लड़कियाँ दु:ख न सह सकने के कारण गले में फाँसी लगाकर मर जाँयगी, इस डर से इसका कठोर बन्धन बिन्दुमात्र शिथिल करने की कल्पना करना भी पागलपन है। किन्तु उस लड़की का रोना जो मनुष्य अपनी आँखों देख आया है उसके लिए यह साध्य् नहीं हो सकता कि वह इस प्रश्न को अपने पास में आने से रोक सके कि किसी तरह टिके रहना- अपना अस्तित्व मात्र बनाए रखना ही क्या जीवन की चरम सार्थकता है? इस तरह की तो बहुत-सी जातियाँ अपना अस्तित्व बनाए हुए मौजूद हैं। कोरकू हैं, कोल, भील-संथाल हैं, प्रशान्त महासागर के अनेक छोटे-मोटे द्वीपों की अनेक छोटी-मोटी जातियों की मनुष्य सृष्टि शुरू से अभी तक वैसी ही बनी हुई हैं। अफ्रीका में हैं, अमेरिका में हैं; उन जातियों में भी इस तरह के सब कठोर सामाजिक आईन-कानून मौजूद हैं जिन्हें सुनकर शरीर का रक्त पानी हो जाता है।
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