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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उम्र के लिहाज से वे जातियाँ यूरोप की अनेक जातियों के अति वृद्ध पितामहों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं, और हमसे भी अधिक पुरातन हैं। किन्तु इसलिए ये जातियाँ हमारी अपेक्षा सामाजिक आचार-व्यवहार में श्रेष्ठ हैं, ऐसा अद्भुत संशय, मैं समझता हूँ, किसी के मन में न उठता होगा। सामाजिक समस्याएँ झुण्ड बाँधकर सामने नहीं आतीं। यों ही एकाध क्वाचित् कदाचित् ही आविर्भूत होती है। अपनी दोनों बंगाली लड़कियों को हिन्दुस्तानियों के घर ब्याहते समय गौरी तिवारी के मन में शायद इस तरह का प्रश्न आया था। किन्तु, वह बेचारा इस दुरुह प्रश्न से छुटकारा पाने का कोई रास्ता न खोज सकने के कारण ही अन्त में, सामाजिक यूपकाठ के ऊपर दोनों कन्याओं का बलिदान देने के लिए बाध्य हुआ था। जो समाज इन दोनों निरुपाय क्षुप्र बालिकाओं के लिए भी स्थान न दे सका, जो समाज अपने को इतना-सा भी उदार बनाने की शक्ति नहीं रखता, उस लँगड़े निर्जीव समाज के लिए अपने मन में मैं किंचित्-मात्र भी गौरव का अनुभव नहीं कर सका। कहीं किसी एक बड़े भारी लेखक के लेख में पढ़ा था कि हमारे समाज ने जिस एक बड़े सामाजिक प्रश्न का उत्तर जगत के सामने 'जाति-भेद' के रूप में उपस्थित किया है, उसका अन्तिम फैसला आज तक भी नहीं हुआ है। ऐसा ही कुछ उसमें कहा गया था। किन्तु उस समस्त युक्तिहीन उच्छ्वास का उत्तर देने की भी मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। 'हुआ नहीं है' और 'होगा नहीं' ऐसा प्रबल कण्ठ से घोषित करके जो लोग अपने ही प्रश्न के उत्तर को खुद ही दबा देते हैं उनको जवाब देने की भी प्रवृत्ति नहीं होती। खैर, जाने दो।
दुकान से उठकर और ढूँढ़-खोजकर डाक-बक्स में उस बैरंग पत्र को डालकर जब मैं अपने डेरे पर आ पहुँचा, तब मेरे अन्यान्य सहयोगी आटा, दाल आदि संग्रह करके लौटे न थे।
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