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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने देखा कि 'साधु-बाबा' आज मानो कुछ खीझे हुए हैं। कारण भी उन्होंने स्वयं प्रकट कर दिया; बोले, “यह गाँव साधु-संन्यासियों के प्रति उतना अनुरक्त नहीं है, सेवादि की व्यवस्था भी वैसी सन्तोषजनक नहीं करता; इसलिए कल ही इस स्थान का त्याग कर देना होगा!” 'जो आज्ञा' कहकर मैंने उसी क्षण उसका अनुमोदन कर दिया। मन के भीतर पटना देखने का जो प्रबल कुतूहल छिपा था, अपने पास मैं उसे और अधिक ढँककर न रख सका।
सिवाय इसके, बिहार के गाँव में किसी तरह का आकर्षण भी ढूँढे नहीं मिलता था। उसके पहले मैं बंगाल के अनेक गाँवों में विचरण कर चुका हूँ, किन्तु, उनके साथ इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती। नर-नारी, पेड़-पत्ते, जलवायु- कोई भी चीज़ अपनी-सी नहीं मालूम होती थीं। सारा मन सुबह से लेकर रात्रिपर्यन्त केवल 'भागूँ-भागूँ' किया करता था।
संध्या के समय मुहल्ले से उस तरह झाँझ-करताल के साथ कीर्तन का सुर कानों में नहीं आता। देव-मन्दिरों में आरती के काँसे के घण्टे आदि भी उस तरह का गम्भीर मधुर शब्द नहीं करते। इस देश की स्त्रियाँ शंखों को भी वैसी मीठी तरह से बजाना नहीं जानतीं, तब यहाँ मनुष्य किस सुख के लिए रहते हैं? और मन ही मन ऐसा लगने लगा कि यदि इन सब गाँवों में मैं न आ पड़ा होता तो अपने गाँवों का मूल्य किसी दिन भी इस तरह न जान पाता। हमारे यहाँ के पानी में काई भरी रहती है, हवा में मलेरिया है, प्राय: सभी मनुष्यों के पेट में पिलही बढ़ी हुई है, घर-घर मुकदमे-मामले हुआ करते हैं, महल्ले महल्ले में दलबन्दियाँ हैं; सो सब रहने दो, परन्तु फिर भी उसके बीच भी कितना रस, कितनी तृप्ति थी। इस समय मानो, उसके विषय में कुछ न जानते हुए भी मैं सब कुछ जानने लगा।
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