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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
दूसरे दिन तम्बू उखाड़ कर यात्रा शुरू कर दी गयी; और साधु बाबा यथा शक्ति भारद्वाज मुनि के आश्रम की ओर दलबल-सहित अग्रसर होने लगे। किन्तु चाहे रास्ता सीधा पड़ेगा इस खयाल से हो, अथवा मुनि ने मेरे मन की बात जान ली- इस कारण से हो, पटना के दस कोस के भीतर उन्होंने और फिर कहीं तम्बू नहीं गाड़ा। मन में एक वासना थी। खैर उसे इस समय रहने दो। पाप-ताप मैंने बहुत से किये हैं; साधु-संग भी कुछ दिन करके पवित्र हो लूँ।
एक दिन संध्या के कुछ पहले जिस जगह हमारा डेरा पड़ा, उसका नाम था छोटी बगिया। आरा स्टेशन से यह स्थान आठ कोस दूर है। इस गाँव के एक प्रसिद्ध बंगाली सज्जन से मेरा परिचय हो गया था। उनकी सदाशयता का यहाँ कुछ वर्णन करूँगा। उनके पैतृक नाम को गुप्त रखकर 'राम बाबू' कहना ही अच्छा है, क्योंकि अब तक वे जीवित हैं। और बाद में, अन्यत्र यद्यपि उनसे मेरा साक्षात्कार हुआ था, फिर भी वे मुझे पहिचान नहीं सके थे। इसमें कुछ अचरज भी नहीं है। परन्तु उनका स्वभाव मैं जानता हूँ। गुप्त रूप से उन्होंने जो सत्कार्य किये हैं उनका प्रकाश्य रूप में उल्लेख किये जाने पर वे विनय से संकुचित हो उठेंगे, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। इसलिए उनका नाम है 'राम बाबू'। किस तरह राम बाबू उस गाँव में आए थे और किस तरह उन्होंने जमा-जमीन संग्रह करके खेती-बारी की थी, सो मुझे नहीं मालूम। इतना ही मैं जानता हूँ कि उन्होंने दूसरी दफा विवाह किया था और तीन-चार पुत्र-कन्याओं के साथ वे वहाँ सुख से वास करते थे।
सुबह के समय सुना गया कि इन्हीं छोटी बगिया और बड़ी बगिया नामक गाँवों में उस समय शीतला ने महामारी के रूप में दर्शन दिए हैं। देखा गया है कि गाँव के दु:समय में ही साधु संन्यासियों की सेवा विशेष सन्तोषजनक होती है। इसीलिए साधु बाबा ने अविचलित चित्त से वहाँ पर अवस्थान करने का संकल्प कर लिया।
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