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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


अच्छी बात है। संन्यासी जीवन के सम्बन्ध में यहाँ पर मैं एक बात कह देना चाहता हूँ। जीवन में इनमें से मैंने अनेकों को देखा है। चारेक दफा मैं उनके साथ ऐसे ही घनिष्ठ भाव से घुल-मिलकर भी रहा हूँ। दोष जो उनमें हैं सो हैं ही, मैं तो गुणों की बात ही कहूँगा। 'केवल पेट के लिए साधुजी' तो आप में से अनेक जानते होंगे, परन्तु इन लोगों में भी ये दो दोष मेरी नजर नहीं आए, और मेरी नजर भी कुछ बहुत स्थूल नहीं है। स्त्रियों के सम्बन्ध में इन लोगों का संयम कहो या उत्साह की स्वल्पता कहो- खूब अधिक है, और प्राणों का भय भी इन लोगों में बिल्कुल ही कम होता है। 'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्' तो है, परन्तु क्या करने से 'बहुदिनं जीवेत्' यह खयाल नहीं होता। हमारे साधु बाबा भी ऐसे ही थे! पहली वस्तु के याने 'सुख' के लिए दूसरी अर्थात् 'जीवेत्' को उन्होंने तुच्छ कर दिया था!”

थोड़ी-सी धूनी की राख और दो बूँद कमण्डलु के जल के बदले में जो सब वस्तुएँ दनादन डेरे में आने लगीं वह, क्या तो संन्यासी और क्या गृहस्थ, किसी के लिए विरक्ति का कारण नहीं हो सकतीं!

राम बाबू स्त्री सहित रोते हुए आए। चार रोज के बुखार के बाद आज सुबह बड़े लड़के को शीतला दिखाई पड़ी हैं और छोटा बच्चा कल रात से ज्वर में बेहोश पड़ा है। यह जानकर कि वे बंगाली हैं मैंने स्वयं उनके निकट जाकर उनसे परिचय किया।

इसके बाद कथा के सिलसिले में मैं महीने-भर का विच्छेद कर देना चाहता हूँ। क्योंकि किस तरह यह परिचय घनिष्ठ होता गया, किस तरह दोनों बच्चे चंगे हुए- इसकी बहुत लम्बी कथा है। कहते-कहते मेरा भी धीरज छूट जायेगा, फिर पाठकों की बात तो दूर रही। फिर भी, बीच की एक बात कहे देता हूँ। करीब पन्द्रह दिन बाद, जब कि रोग का प्रकोप बहुत बढ़ा-चढ़ा था, साधुजी ने अपना डेरा उठाने का प्रस्ताव किया।

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