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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राम बाबू की स्त्री रोकर बोल उठीं, “संन्यासी भइया, तुम तो सचमुच के संन्यासी नहीं हो- तुम्हारे शरीर में तो दया-माया है। नवीन और जीवन को यदि तुम छोड़कर चले आओगे, तो वे कभी नहीं बचेंगे। कहाँ, जाओ देखूँ, कैसे जाते हो?” इतना कहकर उसने मेरे पैर पकड़ लिये। मेरी आँखों से भी आँसू निकल पड़े। राम बाबू भी स्त्री की प्रार्थना में योग देकर अनुनय-विनय करने लगे। इसलिए मैं नहीं जा सका। साधु बाबा से मैं बोला; “प्रभो, आप अग्रसर हूजिए, मैं रास्ते के बीच में, नहीं तो प्रयाग में पहुँचकर, आपकी पदधूलि अवश्य ही माथे चढ़ा सकूँगा, इसमें कोई सन्देह है।” प्रभु कुछ क्षुण्ण हुए। अन्त में बार-बार अनुरोध करके, अकारण कहीं विलम्ब न लगा देना, इस सम्बन्ध में बार-बार सावधान करके, वे सदल-बल यात्रा कर गये। मैं राम बाबू के घर में ही रह गया। इन थोड़े से दिनों के बीच में ही मैं इस तरह प्रभु का सबसे अधिक स्नेह-पात्र हो गया था कि यदि और टिका रहता तो उनकी संन्यास-लीला के अवसान पर, उत्तराधिकार-सूत्र से मैं उस टट्टू और दोनों ऊँटों पर दखल प्राप्त कर सकता, इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया था खैर जाने दो - हाथ की लक्ष्मी पैर से ठेलकर, गयी बात को लेकर, परिताप करने में अब कोई लाभ नहीं है।
दोनों लड़के चंगे हो गये। महामारी इस दफे सचमुच ही महामारी के रूप में दिखाई दी। वह कैसा व्यापार था जिसने अपनी आँखों नहीं देखा वह किसी का लिखा हुआ पढ़कर, कहानी सुनाकर या कल्पना करके हृदयंगम कर सके यह असम्भव है। अतएव इस असम्भव कार्य को सम्भव करने का प्रयास मैं नहीं करूँगा। लोगों ने भागना शुरू किया; इसमें और कोई विवेक विचार नहीं रहा! जिस घर में मनुष्य का चिह्न दिखाई देता था उसमें झाँककर देखने से नजर आता था कि केवल माँ अपनी पीड़ित सन्तान को आगे लिये बैठी है।
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