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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राम बाबू ने भी अपनी घरू बैलगाड़ी में माल-असबाब लाद दिया। वे तो कई दिन पहले ही ऐसा करना चाहते थे, किन्तु, बाध्य होकर ही न कर सके। पाँच-छ: दिन पहले से ही मेरी सारी देह एक ऐसे बुरे आलस्य से मर गयी थी कि कुछ भी भला नहीं लगता था। मालूम होता था कि रात्रि-जागरण और परिश्रम के कारण ही ऐसा हो रहा है। उस दिन सुबह से ही सिर दुखने लगा। बिल्कुल अरुचि होते हुए भी दोपहर के समय जो कुछ खाया शाम के वक्त उसे कै कर दिया। रात के 9-10 बजे मालूम हुआ कि बुखार चढ़ आया है। उस दिन सारी रात, उन लोगों का उद्योग आयोजन चल रहा था, सभी जाग रहे थे। बहुत रात बीते राम बाबू की स्त्री बाहर से मेरे कमरे के भीतर झाँककर बोली, “संन्यासी भइया, तुम क्या हमारे साथ ही आरा तक नहीं चलोगे?”
मैं बोला, “जरूर चलूँगा। किन्तु तुम्हारी गाड़ी में मुझे थोड़ी-सी जगह देनी होगी।”
बहिन ने उत्सुक होकर प्रश्न किया, “सो कैसे संन्यासी भइया? गाड़ियाँ तो दो से अधिक नहीं मिल सकीं। उनमें तो हम लोगों भर के लिए भी जगह नहीं है।”
मैंने कहा, “मुझमें तो चलने की ताकत नहीं है बहिन, सुबह से ही खूब बुखार चढ़ा है।”
“बुखार! कहते क्या हो?” इतना कहकर उत्तर की भी अपेक्षा न करके मेरी नूतन बहिन अपना मुँह श्याम करके चली गयी।
कितनी देर तक मैं सोता रहा, सो नहीं कह सकता। जागकर देखा तो दिन चढ़ आया है। मकान के भीतर के सभी कमरों में ताला लगा हुआ है, मनुष्य प्राणी का नाम भी नहीं है।
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