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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“आपके रहने से माँ बड़े आनन्द से रहती हैं।” यह कह तो दिया- पर इससे उसका मुँह लाल हो गया। वह चट से उठकर चल दिया। मैंने देखा, लड़का अत्यन्त भोला और सरल प्रकृति का जरूर है, परन्तु बेवकूफ नहीं है। प्यारी ने कहा था कि “और अधिक दिन रहोगे तो मेरा लड़का क्या खयाल करेगा?” इस बात के साथ उस लड़के के व्यवहार की आलोचना का अर्थ भी मानो मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ ऐसा मुझे मालूम पड़ा; और मातृत्व की इस एक नयी तसवीर के दृष्टिगोचर होने से मानो मैंने एक नूतन ज्ञान सम्पादित किया। प्यारी के हृदय की एकाग्र वासना का अनुमान करना हमारे लिए कठिन नहीं है और वह संसार में सब ओर से सब तरह स्वाधीन है, यह कल्पना करना भी, मैं समझता हूँ कि, पाप नहीं है। फिर भी, उसने जिस मुहूर्त से एक दरिद्र बालक के मातृ-पद को स्वेच्छा से ग्रहण किया है तभी से मानो अपने दोनों पैरों को लोहे की साँकलों से जकड़ लिया है। वह स्वयं चाहे जो हो परन्तु उसे, अपने तईं माता का सम्मान तो अब देना ही होगा! उसकी असंयत कामना, उच्छृंखल प्रवृत्ति, उसे चाहे जितने अध:पतन की ओर क्यों न ठेलना चाहे, परन्तु यह बात भी तो उससे भूली नहीं जाती कि वह एक लड़के की माँ है! और उस सन्तान की भक्ति-नत दृष्टि के सामने तो वह उस माँ को किसी तरह भी अपमानित नहीं होने देगी! उसके विह्वल यौवन के लालसामत्त वसन्त के दिनों में प्यार के साथ किसने उसका नाम 'प्यारी' रक्खा था यह तो मैं नहीं जानता; किन्तु, यह नाम भी वह अपने लड़के के सामने छुपा रखना चाहती है, यह बात मुझे याद आ गयी।
देखते-देखते सूर्य अस्त हो गया। उस ओर ताकते-ताकते मेरा सारा अन्त:करण मानो पिघलकर लाल हो उठा। मन-ही-मन बोला कि राजलक्ष्मी को अब तो मैं नीची निगाह से देख नहीं सकता। हम दोनों का बाहरी बर्ताव इतने दिनों तक चाहे जितने बड़े स्वातन्त्रय की रक्षा करते हुए क्यों न चलता रहा हो, स्नेह चाहे जितना माधुर्य क्यों न ढाल दे, परन्तु इसमें तो कोई सन्देह नहीं है कि दोनों की कामनाएँ एकत्र सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक क्षण दुर्निवार वेग के साथ एक-दूसरे की ओर दौड़ रही हैं। परन्तु आज मैंने देखा कि यह असम्भव है। एकाएक 'बंकू की माँ' आकाश भेदी हिमालय पर्वत की नाईं रास्ता रोककर राजलक्ष्मी और मेरे बीच आकर खड़ी है। मन-ही-मन मैंने कहा, कल सुबह ही तो मैं यहाँ से जा रहा हूँ- किन्तु तब कहीं ऐसा न हो कि मन में फायदे-नुकसान का हिसाब लगाने जाकर कुछ बचा रखने की चेष्टा करने लगूँ। मेरा यह जाना अन्तिम जाना ही हो। देख न पाने का बहाना करके एक अति सूक्ष्म वासना का बन्धन मैं यहाँ न रख जाऊँ जिसका सहारा लेकर फिर कभी मुझे यहाँ आकर उपस्थित होना पड़े!
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