कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 4 प्रेमचन्द की कहानियाँ 4प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग
पर अभी पूरा साल भी न गुजरा था कि मुझे सईद के मिजाज में कुछ तबदीली नजर आने लगी। हमारे दरमियान कोई लड़ाई-झगड़ा या बदमजगी न हुई थी मगर अब वह सईद न था। जिसे एक लम्हे के लिए भी मेरी जुदाई दूभर थी वह अब रात की रात गायब रहता। उसकी आंखों में प्रेम की वह उमंग न थी न अन्दाजों में वह प्यास, न मिजाज में वह गर्मी।
कुछ दिनों तक इस रुखेपन ने मुझे खूब रुलाया। मुहब्बत के मजे याद आ आकर तड़पा देते। मैंने पढ़ा था कि प्रेम अमर होता है। क्या, वह स्रोत इतनी जल्दी सूख गया? आह, नहीं वह अब किसी दूसरे चमन को शादाब करता था। आखिर मैं भी सईद से आंखें चुराने लगी। बेदिली से नहीं, सिर्फ इसलिए कि अब मुझे उससे आंखें मिलाने की ताव न थी। उसे देखते ही महुब्बत के हजारों करिश्मे नजरों के सामने आ जाते और आंखें भर आतीं। मेरा दिल अब भी उसकी तरफ खिंचता था कभी-कभी बेअख्तियार जी चाहता कि उसके पैरों पर गिरूं और कहूं- मेरे दिलदार , यह बेरहमी क्यों? क्या तुमने मुझसे मुंह फेर लिया है। मुझसे क्या खता हुई? लेकिन इस स्वाभिमान का बुरा हो जो दीवार बनकर रास्ते में खड़ा हो जाता।
यहां तक कि धीरे-धीरे दिल में भी मुहब्बत की जगह हसद ने ले ली। निराशा के धैर्य ने दिल को तसकीन दी। मेरे लिए सईद अब बीते हुए बसन्त का एक भूला हुआ गीत था। दिल की गर्मी ठण्डी हो गयी। प्रेम का दीपक बुझ गया। यही नहीं, उसकी इज्जत भी मेरे दिल से रुखसत हो गयी। जिस आदमी के प्रेम के पवित्र मन्दिर में मैल भरा हुंआ हो वह हरगिज इस योग्य नहीं कि मैं उसके लिए घुलूं और मरूं।
एक रोज शाम के वक्त मैं अपने कमरे में पलंग पर पड़ी एक किस्सा पढ़ रही थी, तभी अचानक एक सुन्दर स्त्री मेरे कमरे में आयी। ऐसा मालूम हूआ कि जैसे कमरा जगमगा उठा। रूप की ज्योति ने दरो-दीवार को रोशन कर दिया। गोया अभी सफेदी हुई हैं उसकी अलंकृत शोभा, उसका खिला हुआ फूला जैसा लुभावना चेहरा उसकी नशीली मिठास, किसी तारीफ करूं, मुझ पर एक रोब सा छा गया। मेरा रूप का घमंड धूल में मिल गया है। मैं आश्चर्य में थी कि यह कौन रमणी है और यहां क्यों कर आयी। बेअख्तियार उठी कि उससे मिलूं और पूछूं कि सईद भी मुस्कराता हुआ कमरे में आया मैं समझ गयी कि यह रमणी उसकी प्रेमिका है। मेरा गर्व जाग उठा। मैं उठी जरूर पर शान से गर्दन उठाए हुए आंखों में हुस्न के रौब की जगह घृणा का भाव आ बैठा। मेरी आंखों में अब वह रमणी रूप की देवी नहीं डसने वाली नागिन थी। मैं फिर चारपाई पर बैठ गई और किताब खोलकर सामने रख ली- वह रमणी एक क्षण तक खड़ी मेरी तस्वीरों को देखती रही तब कमरे से निकली। चलते वक्त उसने एक बार मेरी तरफ देखा उसकी आंखों से अंगारे निकल रहे थे। जिनकी किरणों में हिंसप्रतिशोध की लाली झलक रही थी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुंआ- सईद इसे यहां क्यों लाया? क्या मेरा घमण्ड तोड़ने के लिए?
जायदाद पर मेरा नाम था पर वह केवल एक, भ्रम था, उस पर अधिकार पूरी तरह सईद का था। नौकर भी उसी को अपना मालिक समझते थे और अक्सर मेरे साथ ढिठाई से पेश आते। मैं सब्र के साथ जिन्दगी के दिन काट रही थी। जब दिल में उमंगें न रहीं तो पीड़ा क्यों होती?
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