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प्रेमचन्द की कहानियाँ 9

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9770
आईएसबीएन :9781613015070

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का नौवाँ भाग


माया ने कोई जवाब न दिया। उसकी निराशा अब क्रोध का रूप धारण करती जाती थी। वह सोच रही थी- जिस तरह यह महाशय मुझे दिक् कर रहे हैं, उसी तरह मैं भी उन्हें दिक़ करूँगी। घंटे-भर तो बोलूँगी ही नहीं। आकर स्टेशन पर बैठे हुए हैं। यहाँ तक आते पैर की मेंहदी छूटी जाती है। कुछ नहीं, इन्हें मुझको जलाने में मज़ा आता है। इनकी यह पुरानी आदत है। अपने मन को क्या करूँ? नहीं, इच्छा तो यही होती है कि जैसे वह मुझसे उदासीन रहते हैं, वैसे ही उनकी बात न लूँ।

सहसा एक चौकीदार ने आकर कहा- ''बहूजी, लाहौर से तार आया है।'' माया भीतर-ही-भीतर जल उठी। ऐसा जान पड़ा, जैसे किसी ने हृदय को कुचल दिया हो। फ़ौरन विचार हुआ- इसके सिवा और क्या लिखा होगा कि इस गाड़ी से न आ सकूँगा? तार दे देना कौन मुश्किल है? मैं भी क्यों न तार दे दूं कि मैं एक महीने के लिए मैके जा रही हूँ।

विरक्त भाव से चौकीदार की ओर देखकर माया ने कहा- ''तार ले जाकर कमरे में मेज पर रख दो!'' लेकिन फिर कुछ सोचकर उसने लिफ़ाफ़ा ले लिया और खोला ही था कि काग़ज़ हाथ से छूटकर गिर पड़ा। लिखा था- मि. व्यास को किसी बदमाश ने दस बजे रात को मार डाला।

कई महीने गुजर गए, पर खूनी का अब तक कहीं पता नहीं। खुफ़िया पुलिस के कई पुराने आदमी उसका सुराग़ लगाने के लिए नियुक्त हैं। खूनी का पता देने वाले को बीस हज़ार रुपए का इनाम दिए जाने का विज्ञापन दिया जा चुका है, पर सारे प्रयास निकल हो रहे हैं। जिस होटल में मि. व्यास ठहरे थे, उसी में एक महीने से माया ठहरी हुई है। इस कमरे से उसे प्रेम हो गया लै। उसकी सूरत इतनी बदल गई है कि पहचानी नहीं जाती, पर उस पर दीनता या वेदना की जगह उन्माद की प्रचंडता झलक रही है। उसकी मत्त आँखों में अब खून की प्यास है और प्रतिकार की ज्वाला। यही उसके जीवन का ध्येय, उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा है। जिस पिशाच ने उसका सर्वनाश कर दिया, उसे अपने सामने तड़पते देखकर ही उसकी आँखें ठंडी होंगी।

पुलिस साम, दाम, दंड, भेद से काम ले रही है, किंतु माया ने अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए एक और ही साधना का आश्रय लिया है। मि. व्यास को प्रेत-विद्या का शौक था। उनकी सोहबत में माया को भी कुछ अभ्यास हो गया था। उस वक्त उसके लिए यह मनोरंजन का विषय था, पर अब यही उसका इष्ट हो गया था। वह नित्य-प्रति तिलोत्तमा पर इसका अभ्यास करती थी। वह उस दिन का इंतजार कर रही थी, जब वह अपने पति की आत्मा का आवाहन करके उससे घातक का सुराग़ लगा सकेगी। रात के दस बज गए थे। माया ने कमरे में अँधेरा कर लिया था और तिलोत्तमा पर प्रयोग कर रही थी। सहसा उसे कमरे में किसी बुझते हुए दीपक के अंतिम आलोक के सदृश्य किसी वस्तु के अवतरित होने का आभास हुआ।

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