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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


धीरेन- ''कैसी बातें करती हो, सरला! सोसाइटी का खौफ़ खुदा के खौफ़ से भी ज्यादा है। अगर तुमने यह ढंग अख्तियार किया तो मेरी इज़ज़त खाक में मिला दोगी और मेरा भविष्य अंधकारपूर्ण हो जाएगा। मैं सोसाइटी की निगाहों में जलील हो जाऊँगा। सरला, तुम इस वक्त गुस्से में हो, मगर जब तुम्हारी तबीयत ठंडी होगी, गुस्सा शांत हो जाएगा और तुम इस मसले पर गौर करोगी तो यकीनन मेरी यह खता माफ़ कर दोगी। ऐसी बहुत कम औरतें होंगी, जिन्हें अपनी ज़िंदगी में ऐसी गुत्थियाँ न सुलझानी पड़ती हों। मैं अतिशयोक्ति नहीं करता हूँ सोसाइटी में ऐसी बातें आए दिन हुआ करती हैं, मगर पर्दे के अंदर। मैं दूसरे का शैदा नहीं, क्या तुम्हें भी मेरी मुहब्बत नहीं? उसी मुहब्बत के सदके, तुम इन बातों को भूल जाओ। मैं वायदा करता हूँ कि अब फिर ऐसा मौका कभी न आएगा।'' यह कहकर धीरेन बाहर चले गए और सरला वहीं खामोश बैठी सोचती रही- 'सोसाइटी की व्यवस्था ऐसे कच्चे धागे से बँधी हुई है।'

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4. ग़मी

मुझे जब कोई काम-जैसे बच्चों को खिलाना, ताश खेलना, हारमोनियम बजाना, सड़क पर आने-जाने वालों को देखना - नहीं होता तो अखबार उलट लिया करता हूँ। अखबार में पहले उन मुक़दमों की रिपोर्ट पढ़ता हूँ जिसमें किसी स्त्री की चर्चा होती है, जैसे आशनाई के, या भगा ले जाने के, या तलाक़ के या बलात्कार के। विशेष कर बलात्कार के मुक़दमे मैं बड़े शौक से पड़ता हूँ तन्मय हो जाता हूँ।

कल संयोग से अखबार में ऐसा ही एक मुक़दमा मिल गया। मैं सँभल गया। ताबेदार से चिलम भरवाई और घड़ी-दो-घड़ी असीम आनंद की कल्पना करके अखबार पढ़ने लगा।

यकायक किसी ने पुकारा- ''बाबूजी!''

मुझे यह आवाज बुरी तो लगी, लेकिन कभी-कभी इसी तरह निमंत्रण भी आ जाया करते हैं, इसलिए मैंने कमरे के बाहर आकर आदमी से पूछा- ''क्या काम है मुझसे? कहाँ से आया है?''

उस आदमी के हाथ में न कोई निमंत्रण-पत्र था, न निमंत्रित सज्जनों की नामावली। इससे मेरा क्रोध और दहक उठा। मैंने अंग्रेजी में दो-चार गालियाँ दीं और उसके जवाब की अपेक्षा करने लगा।

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