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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772
आईएसबीएन :9781613015094

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


हरिधन ने ओठ चबा कर कहा– मैं खुद खाने नहीं गया !  कहते तुम्हें लाज नहीं आती।

‘नहीं आयी थी बहन तुम्हें बुलाने?’

हरिधन की आँखों में खून उतर आया; दाँत पीस कर रह गया। छोटे साले ने कहा–अम्माँ भी तो आयी थीं। तुमने कह दिया, मुझे भूख नहीं तो क्या करतीं?

सास भीतर से लपकी चली आ रही थी। यह बात सुन कर बोली– कितना कह कर हार गयी, कोई उठे न तो मैं क्या करूँ !

हरिधन ने विष, खून और आग से भरे स्वर में कहा– मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिए हूँ! मैं कुत्ता हूँ कि तुम लोग खा कर मेरे सामने रूखी रोटी का एक टुकड़ा फेंक दो?

बुढ़िया ने ऐंठ कर कहा– तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगे?

हरिधन परास्त हो गया। बुढ़िया ने एक ही वाक्यप्रहार में उसका काम तमाम कर दिया। उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गयीं, आँखों की आग बुझ गयी, फड़कते हुए नथुने शांत हो गये। किसी आहत मनुष्य की भाँति वह ज़मीन पर गिर पड़ा। ‘क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे?’ यह वाक्य एक लम्बे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था– न हृदय का अन्त था, न उस भाले का !

सारे घर ने खाया; पर हरिधन न उठा। सास ने मनाया, सालियों ने मनाया, ससुर ने मनाया, दोनों साले मना कर हार गये। हरिधन न उठा; वहीं द्वार पर टाट पड़ा था। उसे उठा कर सबसे अलग कुएँ पर ले गया और जगत पर बिछा कर पड़ा रहा।

रात भींग चुकी थी। अन्नत प्रकाश में उज्ज्वल तारे बालकों की भाँति क्रीड़ा कर रहे थे। कोई नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आँखें मींच कर फिर खोल देता था। रह-रह कर कोई साहसी बालक सपाटा भर कर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र के पार कर लेता था और न जाने कहाँ छिप जाता था। हरिधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था। उसकी बाल-स्मृतियाँ उन्हीं चमकीले तारों की भाँति प्रज्वलित हो गयीं। वह अपना छोटा-सा घर, वह आम का बाग जहाँ वह केरियाँ चुना करता था, वह मैदान जहाँ वह कबड्डी खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गयी। उन आँखों में कितनी करुणा थी, कितनी दया थी। उसे ऐसा जान पड़ा मानों माता आँखों में आँसू भरे, उसे छाती से लगा लेने के लिए हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही है। वह उस मधुर भावना में अपने को भूल गया। ऐसा जान पड़ा मानों माता ने उसे छाती से लगा लिया है और उसके सिर पर हाथ फेर रही है। वह रोने लगा, फूट-फूट कर रोने लगा। उसी आत्म-सम्मोहित दशा में उसके मुँह से यह शब्द निकले– अम्माँ तुमने मुझे इतना भुला दिया। देखो, तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है! कोई उसे पानी को भी नहीं पूछता। क्या जहाँ तुम हो, वहाँ मेरे लिए जगह नहीं है?

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