कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
वह रात के तीन बजे तक बच्चे को गोद में लिए एक-एक घंटे पर दवा पिलाती रही। बच्चे ने दूध पीना शुरू किया, उसके गले की घरघराहट रुक गई और वह मौत के फंदे से निकल आया। बच्चे की माँ अपनी उपकारिणी के पाँवों पर गिर पड़ी और रो-रोकर उसे धन्यवाद देने लगी।
इलाहाबाद में पार्वती और वह सीधी-सादी महिला, दोनों उतरीं। पार्वती का भाई आकर कुलियों को पुकारने लगा। जब कोई कुली न आया तो पार्वती को ही अपने सन्दूक, बिस्तर आदि उतार-उतारकर भाई को देने पड़े। उसकी रेशमी जाकट चिरक गई। उधर उस गम्भीर सीधी-सादी महिला ने जैसे ही अपना बिस्तर उठाया तो लपककर एक महिला ने उसके हाथों से बिस्तर ले लिया, दूसरी ने उसका सन्दूक उतार लिया, तीसरी ने उसका दवाओं का बक्स उठाया और कई महिलाएँ उसे धर्मशाला तक पहुँचाने आईं। बीमार बच्चे की माँ बार-बार उसके आगे हाथ जोड़ती और पैरों पर गिरती। दूसरी महिलाएँ भी उससे गले मिलीं। ऐसा लगता था मानो वे अपने किसी आत्मीय से बिछुड़ रही हों। लेकिन किसी ने पार्वती की बात भी न पूछी। उसके जाने से सब महिलाओं को सच्ची खुशी हुई, मानो सिर से एक बला ही टल गई। अब उन्हें जरा कमर सीधी करने की जगह तो मिलेगी। बीमार बच्चे की माँ ने तो उसे घृणा की दृष्टि से देखा और मन ही मन उसे जी भरकर कोसा।
पार्वती ने मन में कहा- इस सीधी-सादी औरत ने तो अच्छा ही रंग जमा लिया। सभी महिलाएँ अनुचरी बन गईं, मानो कोई मन्त्र ही फूँक दिया हो। गँवारों के बीच तो ऐसा हो सकता है, परन्तु किसी भले घर में इसे कौन घास डालेगा।
पार्वती का मायका शहर से सटी एक ऐसी बस्ती में था जिसे न शहर कह सकते थे, न देहात। वहाँ शहर की तो एक भी सुविधा न थी मगर देहात के सभी कष्ट मौजूद थे। न शहर की सड़कें, लालटेनें, नालियाँ थीं न देहात का विस्तार, हरियाली और हवा। वहाँ का दूध शहर वाले पीते थे, सब्जी शहर वाले खाते थे, लकड़ी शहर वाले जलाते थे। वहाँ के मजदूर काम करने शहर में जाते थे। खाने-पीने की चीजें वहाँ शहर से आकर ही बिकती थीं। पार्वती के पिता के पास कुछ जमीन थी लेकिन वे मजदूरों की कमी के कारण खेती न कर सकते थे। उसके दोनों भाई अंग्रेजी पढ़ते और वकालत का सपना देखते थे। भोले-भाले से चालाक बनने की धुन सवार थी।
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