कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
जब दोनों सहेलियाँ पाठशाला में पहुँची तो औरतों और बच्चों की भीड़ जमा थी। शीतला देवी जमीन पर बैठी हुई बच्चों को देख रही थी और बक्स से निकाल- निकालकर दवा देती जाती थी। मानो पेड़ों की छाँव में एक उजला कुंड था - वैसा ही मौन, गम्भीर, शान्तिमय और सुन्दर! शीतला की आँखों से एक चित्ताकर्षक पवित्रता झलक रही थी। पार्वती ने उसे पहचान लिया। यह वही सीधी-सादी महिला थी जिसे उसने गाड़ी में देखा था। पार्वती ने देखा कि इस औरत के सामने मैं कैसी निकृष्ट हूँ। और कुछ मैं ही नहीं, मुहल्ले की वे सभी औरतें जो गहनों से गोंड़नी की भाँति सजी हुई हैं इस औरत के सामने सेविकाओं की भाँति खड़ी हैं। यदि ये सभी अपने को सोने से मँढ़वा लें तो भी क्या! क्या इनका ऐसा सम्मान हो सकता है? इससे बात करके कौन निहाल नहीं हो जाता। और जो बीमार हैं वे तो मानो बिना दाम के ही गुलाम हैं। सचमुच इसी का नाम सम्मान है। यह क्या कि चार औरतें आवें और आँखें मटका-मटकाकर हमारे गहनों का बखान करने लगें, मानो हमारा शरीर नहीं बल्कि गहनों की नुमाईश का मैदान ही हो।
आज से एक महीना पहले शायद इस प्रकार के विचार पार्वती के मन में न उभरते। लेकिन आजकल गहनों से उसका मन फिरा हुआ था। सामान्य रूप से दार्शनिक विचारों के मूल में निराशा और उदासी ही होती है। पार्वती चित्रलिखित सी खड़ी शीतला देवी का तौर तरीका, बात करने का ढंग और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार ध्यान से देखती रही। वह सोचती थी,’यह औरत कितनी सुन्दर है लेकिन इसके साथ ही इच्छाओं से कितनी मुक्त। मैं सम्मान की भूखी हूँ लेकिन मैं जिसे सम्मान समझती थी, वह यथार्थ से कितना दूर है। मैं अभी तक छाया के पीछे ही भाग रही थी, आज उसका वास्तविक रूप दिखाई दिया है।’
जब शाम ढल गई और भीड़ छँटी तो शीतला देवी की दृष्टि पार्वती पर पड़ी। वह उसे तत्काल पहचानकर बोली,’बहन, तुम्हें तो मैंने रेलगाड़ी में देखा था।’
पार्वती ने कहा,’हाँ, उस दिन मैं यहाँ आ रही थी।’
शीतला देवी ने पार्वती को सर से पाँव तक देखा और फिर उसकी सहेली बागेश्वरी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मुस्कराकर बागेश्वरी ने कहा,’कुछ दिनों से गहने नहीं पहनती।’
शीतला,’क्या गहनों से नाराज हैं?’
बागेश्वरी,’इनका मन ही जाने।’
पार्वती,’आप भी तो नहीं पहनती।’
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