कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
शीतला,’मुझे मयस्सर ही कहाँ। मैं तो भिखारिन हूँ, बहनों की सेवा करती हूँ और पुण्य के मार्ग में वे जो कुछ दे देती हैं, उसी से अपना पेट पालती हूँ।’
पार्वती,’मुझे भी अपने जैसी भिखारिन बना दीजिए।’
शीतला देवी हँसकर उठ खड़ी हुई और बोली,’भीख माँगने से भीख देना बहुत अच्छा है।’
रात में जब पार्वती लेटी तो शीतला देवी का दमकता चेहरा उसकी आँखों में नाच रहा था जो उसके मन को खींचे लेता था। उसने सोचा, क्या मैं भी शीतला देवी बन सकती हूँ? तत्काल सुरेन्द्र उसके सामने आकर खड़े हो गए, तारा रो-रोकर उसकी गोद में आने के लिए मचलने लगी। जीवन की इच्छाओं की एक बाढ़ ही उठ खड़ी होकर टक्कर मारने लगी। नहीं, शीतला देवी बनना मेरे वश में नहीं है, लेकिन मैं एक बात कर सकती हूँ और वह अवश्य करूँगी।
एक सप्ताह में पार्वती अपनी ससुराल आ पहुँची। सुरेन्द्र ने उसका मुरझाया मुँह देखा तो आश्चर्य से बोले,’गहनों से रूठ गईं क्या?’
पार्वती,’पुराने हो गए, नये बनवा दो।’
सुरेन्द्र,’अभी तो इन्हीं का हिसाब चुकता नहीं हुआ।’
पार्वती,’मैं एक उपाय बताती हूँ। इन गहनों को वापस कर दो। वापस तो हो जाएँगे?’
सुरेन्द्र,’हाँ, बहुत आसानी से। इन दो महीनों में सोने का भाव बहुत चढ़ गया है।’
पार्वती,’तो कल वापस कर आना।’
सुरेन्द्र,’पहनोगी क्या?’
पार्वती,’दूसरे गहने बनवाऊँगी।’
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