कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
'इसलिए कि वह शैतान तुम्हारे साथ भी वही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा। और फिर तुम मेरी तरह उसके नाम को रोओगी।'
'तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था?'
'मुझसे! मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता था और कहता था कि मैं मर जाऊँगा और जहर खा लूँगा।'
'सच कहती हो?'
'बिलकुल सच।'
'यह तो वह मुझसे भी कहते हैं।'
'सच?'
'तुम्हारे सिर की कसम।'
'और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा है।'
'क्या वह सचमुच?'
'पक्का शिकारी है।'
मीना सिर पर हाथ रखकर चिन्ता में डूब जाती है।
7. जिहाद
बहुत पुरानी बात है। हिन्दुओं का एक काफिला अपने धर्म की रक्षा लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रान्त में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रहते आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस में झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा कोई और साधन न था। जान का बदला-जान था, खून का बदला खून था।
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