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प्रेमचन्द की कहानियाँ 12

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9773
आईएसबीएन :9781613015100

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग


इस नियम में भी हिन्दू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गई है। एक मुल्ला ने जाने कहाँ से आकर अनपढ़, धर्म-शून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है उसकी वाणी में कोई मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष सभी खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरजकर कहता है- खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिर के दल को इस्लाम के उजाले से रोशन कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे-नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलायें लेंगी और फरिस्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। इसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है।

उन्हीं हिन्दुओं पर जो सदियों से शान्ति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मन्दिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिन्दू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ छिपे हुए इस आँधी के शान्त हो जाने का अवसर देख रहे हैं।

वह काफिला भी उन्हीं भागने वालों में से था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ के हटे हुए पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिए जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अन्त को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जेहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूकें भरकर कन्धे पर रक्खी और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछाकर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद में उतारकर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिन्ता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे भी जोर से न रोते थे।

दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला, रूपवान है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गति पर आकाश के देवता जय-घोष कर रहे हैं। दूसरा छोटे कद का, दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मराज है, इसका खजाँचन्द।

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