कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
धर्मदास ने बन्दूक को जमीन पर टिकाकर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा- तुमने अपने लिए क्या सोचा कोई लाख-सवा-लाख की सम्पति रही होगी तुम्हारी।
खजाँचन्द ने उदासीन भाव से उत्तर दिया- लाख-सवा-लाख की तो नहीं, हाँ पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।
‘तो अब क्या करोगे'
‘जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा। रावलपिण्डी में दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें तुमने क्या सोचा है’
‘मुझे क्या गम अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ भी इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'
‘आज और कुशल से बीत जाय, तो फिर कोई भय नहीं।
‘मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ तो भूनकर रख दूँ।
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा और डोर लिए निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी मधुर अरुणिमा मूर्तिमान हो गई थी।
दोनों युवक उसकी ओर बढे, लेकिन खजाँचन्द तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोरी ले लिया और खजाँचन्द की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएँ की ओर चला। खजाँचन्द ने फिर बन्दूक सम्भाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह वह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी सन्देह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजाँचन्द की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप-वैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से श्यामा कई बार खजाँचन्द को हताश कर चुकी थी, पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था।
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