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प्रेमचन्द की कहानियाँ 12

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9773
आईएसबीएन :9781613015100

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग


तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले, एक साथ खेलने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ के साथ ही रहती थी, उसकी अभिलाषा थी कि खजाँचन्द उसका दामाद हो। श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अन्तिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाए, लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजाँचन्द ही वृद्धा का मुनीम, खजाँची, कारिन्दा सब कुछ था, और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे इस जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बन्दूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे पकड़ न लें, लेकिन कन्धे पर बन्दूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ न सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर फूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जाय। उधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जा रहे थे। अरबी घोड़ों से उनका मुकाबिला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरन्त उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देखकर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूटकर गिर पड़ी। पाँचों उसी गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा- उड़ा दो सिर मरदूद का। दगाबाज़ क़ाफिर

दूसरा- नहीं-नहीं, ठहरो। अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सजा दी जाय हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम रात ही को हमसे दगा करके भाग निकले। इस दगा की सजा तो यह है कि तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ, लेकिन हम तुम्हें फिर एक मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।

धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा- जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे....

पहले सवार ने आवेश में आकर कहा- मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।

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