कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 14 प्रेमचन्द की कहानियाँ 14प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग
रुपये कहाँ से आवें, और वह भी एकदम से 20 हजार। आदर्श-पालन का यही मूल्य है, राष्ट्र सेवा महँगा सौदा है। 20 हजार ! इतने रुपये तो कैलास ने शायद स्वप्न में भी नहीं देखे हों, और अब देने पड़ेंगे। कहाँ से देगा? इतने रुपयों के सूद से ही वह जीविका की चिंता से मुक्त हो सकता था। उसे अपने पत्र में अपनी विपत्ति का रोना रोकर चन्दा एकत्र करने से घृणा थी। मैंने अपने ग्राहकों की अनुमति लेकर इस शेर से मोरचा नहीं लिया था। मैनेजर की वकालत करने के लिए किसी ने मेरी गर्दन नहीं दबाई थी। मैंने अपना कर्तव्य समझकर ही शासकों को चुनौती दी। जिस काम के लिए मैं अकेला जिम्मेदार हूँ, उसका भार अपने ग्राहकों पर क्यों डालूँ? यह अन्याय है। सम्भव है, जनता में आंदोलन करने से दो-चार हजार रुपये हाथ आ जाएँ, लेकिन यह सम्पादकीय आदर्श के विरुद्ध है। इससे मेरी शान में बट्टा लगता है। दूसरों को यह कहने का क्यों अवसर दूँ कि और के मत्थे फुलोड़ियाँ खायी, तो क्या बड़ा जग जीत लिया! जब जानते कि अपने बल-बूते पर गरजते! निर्भीक आलोचना का सेहरा तो मेरे सिर पर बँधा उसका मूल्य दूसरों से क्यों वसूल करूँ? मेरा पत्र बन्द हो जाए, मैं पकड़कर कैद किया जाऊँ, मेरा मकान कुर्क कर दिया जाए, बरतन-भाँड़े नीलाम हो जाएँ, यह सब मुझे मंजूर है। जो कुछ सिर पड़ेगा, भुगत लूँगा, पर किसी के सामने हाथ न फैलाऊँगा।
सूर्योदय का समय था। पूर्व दिशा से प्रकाश की छटा ऐसे दौड़ी चली आती थी, जैसे आँख में आँसूओं की धारा। ठंडी हवा कलेजे पर यों लगती थी, जैसे किसी करुण क्रन्दन की ध्वनि। सामने का मैदान दुःखी हृदय की भाँति ज्योति के बाणों से बिंध रहा था। घर में वह निस्तब्धता छायी हुई थी, जो गृहस्वामी के गुप्त रोदन की सूचना देती है। न बालकों का शोरगुल था, और न माता की शांति प्रसारिणी शब्द ताड़ना। जब दीपक बुझ रहा हो, तो घर में प्रकाश कहाँ से आये? यह आशा का प्रभाव नहीं, शोक का प्रभाव था, क्योंकि आज ही कुर्कअमीन कैलास की सम्पत्ति को नीलाम करने के लिए आने वाला था।
उसने अंतर्वेदना से विकल होकर कहा- आह! आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत हो जाएगा। जिस भवन का निर्माण करने में अपने जीवन के 25 वर्ष लगा दिए, वह आज नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। पत्र की गर्दन पर छुरी जाएगी, मेरे पैरों में उपहास और अपवास की बेड़ियाँ पड़ जाएँगी, पत्र में कालिमा लग जाएगी, यह शांति कुटीर उजड़ जाएगी, यह शोकाकुल परिवार किसी मुरझाए हुए फूल की पंखुड़ियों की भाँति बिखर जाएगा। संसार में उसके लिए कहीं आश्रय नहीं है। जनता की स्मृति चिरस्थायी नहीं होती, अल्प काल में मेरी सेवाएँ विस्मृति के अधंकार में लीन हो जाएँगी। किसी को मेरी सुध भी न रहेगी, कोई मेरी विपत्ति पर आँसू बहानेवाला भी न होगा।
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