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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


सहसा उसे याद आया कि आज के लिए अभी अग्रलेख लिखना है। आज अपने सुहृद पाठकों को सूचना दूँ कि इस पत्र के जीवन का अंतिम दिवस है, इसे फिर आपकी सेवा में पहुँचने का सौभाग्य न प्राप्त होगा। हमसे अनेक भूलें हुई होगी, आज उनके लिए आप से क्षमा मागते हैं। आपने हमारे प्रति तो सहवेदना और सहृदयता प्रकट की है, उसके लिए हम सदैव आपके कृतज्ञ रहेंगे। हमें किसी से कोई शिकायत नहीं है। हमें इस अकाल मृत्यु का दुःख नहीं है; क्योंकि यह सौभाग्य उन्हीं को प्राप्त होता है, जो अपने कर्तव्य पथ पर अविचल रहते हैं। दुःख यही है कि हम जाति के लिए इससे अधिक बलिदान करने मे समर्थ न हुए। इस लेख को आदि से अंत तक सोचकर वह कुर्सी से उठा ही था कि किसी के पैरों की आहट मालूम हुई। गर्दन उठाकर देखा, तो मिरजा नईम था। वही हँसमुख चेहरा, वही मृदु मुस्कान, वही कीड़ामय नेत्र। आते ही कैलास के गले से लिपट गया।

कैलास ने गर्दन छुड़ाते हुए कहा- क्या मेरे घाव पर नमक छिड़कने, मेरी लाश को पैंरों से ठुकराने आये हो?

नईम ने उसकी गर्दन को और जोर से दबाकर कहा- और क्या, मुहब्बत के यही तो मजे हैं।

कैलास- मुझसे दिल्लगी न करो। भरा बैठा हूँ, मार बैठूँगा।

नईम की आँखें सजल हो गई। बोला- आह जालिम, मैं तेरी जबान से यही कटु वाक्य सुनने के लिए विकल हो रहा था। जितना चाहें कोसो, खूब गालियाँ दो, मुझे इसमें मधुर संगीत का आनंद आ रहा है।

कैलास- और, अभी जब अदालत का कुर्क-अमीन घर-बार नीलाम करने आएगा, तो क्या होगा? बोलो अपनी, जान बचाकर तो अलग हो गए!

नईम- हम दोनों मिलकर खूँब तालियाँ बजाएँगे और उसे बंदर की तरह नचाएँगे।

कैलास- तुम अब पिटोगे मेरे हाथों से ! जालिम, तुझे मेरे बच्चों पर भी दया न आयी?

नईम- तुम भी तो चले मुझी से जोर आजमाने। कोई समय था, जब बाजी तुम्हारे हाथ रहती थी। अब मेरी बारी है। तुमने मौका-महल तो देखा नहीं, मुझ पर पिल पड़े।

कैलास- सरासर सत्य की उपेक्षा करना मेरे सिद्धांत के विरुद्ध था।

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