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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


नईम- और सत्य का गला घोंटना मेरे सिद्धांन्त के अनुकूल।

कैलास- अभी एक पूरा परिवार तुम्हारे गले मढ़ दूँगा, तो अपनी किस्मत को रोओगे। देखने में तुम्हारा आधा भी नहीं हूँ; लेकिन संतानोत्पति में तुम जैसे तीन पर भारी हूँ। पूरे सात हैं, कम न बेश।

नईम- अच्छा लाओ, कुछ खिलाते-पिलाते हो, या तकदीर का मरसिया ही गाये जाओगे? तुम्हारे सिर की कसम बहुत भूखा हूँ। घर से बिना खाना खाए ही चल पड़ा।

कैलास- यहाँ आज सोलहों दंड एकादशी है। सब-के-सब शोक में बैठे उसी अदालत के जल्लाद की राह देख रहे हैं। खाने-पीने का क्या जिक्र! तुम्हारे बेग में कुछ हो तो निकालो; आज साथ बैठकर खा लें, फिर तो जिंदगी भर का रोना है ही।

नईम- फिर तो ऐसी शरारत न करोगे?

कैलास- वाह यह तो आपने रोम-रोम में व्याप्त हो गई है। जब तक सरकार पशुबल से हमारे ऊपर शासन करती रहेगी, हम इसका विरोध करते रहेंगे। खेद यहीं है कि अब मुझे उसका अवसर ही न मिलेगा। किंतु तुम्हें 20000 रु. में से 20 रु. भी न मिलेंगे। यहाँ रद्दियों के ढेर के सिवा और कुछ नहीं है।

नईम- अजी, मैं तुमसे 20 हजार की जगह उसका पँचगुना वसूल कर लूँगा। तुम हो किस फेर में?

कैलास- मुँह धो रखिए !

नईम- मुझे रुपयों की जरूरत है। आओ, कोई समझौता कर लो।

कैलास- कुँवर साहब के 20 हजार रुपये डकार गए, फिर भी अभी संतोष नहीं हुआ? बदहजमी हो जाएगी!

नईम- धन से धन की भूख बढ़ती है, तृप्ति नहीं होती। आओ, कुछ मामला कर लो ! सरकारी कर्मचारी द्वारा मामला करने में और जेरबारी होगी।

कैलास- अरे, तो क्या मामला कर लूँ? यहाँ कागजों के सिवा और कुछ हो भी तो !

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