लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

111 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


नईम- अजी, आँखों में पट्टी बाँध दो।

कैलास के घर में परदा न था। उमा चिंता-मग्न बैठी हुई थी। सहसा नईम और कैलास को देखकर चौंक पड़ी। बोली- आइए मिरजाजी, अबकी तो बहुत दिनों में याद किया।

कैलास नईम को वहीं छोड़कर कमरे के बाहर निकल आया लेकिन परदे की आड़ से छिपकर देखने लगा। इनमें क्या बातें होती हैं। उसे कुछ बुरा खयाल न था, केवल कौतूहल था।

नईम- हम सरकारी आदमियों को इतनी फुरसत कहाँ? डिक्री के रुपये वसूल करने थे, इसीलिए चला आया हूँ।

उमा कहाँ तो मुस्करा रही थी, कहाँ रुपये का नाम सुनते ही उसका चेहरा फक हो गया। गम्भीर स्वर में बोली- हमलोग इसी चिंता में पड़े हुए हैं। कहीं रुपये मिलने की आशा नहीं है; और उन्हें जनता से अपील करते संकोच होता है।

नईम- अजी, आप कहती क्या हैं? मैंने रुपये पाई-पाई वसूल कर लिए।

उमा ने चकित होकर कहा- सच! उनके पास रुपये कहाँ थे?

नईम- उनकी हमेशा से यही आदत है। आपसे कह रखा होगा, मेरे पास कौड़ी नहीं है। लेकिन मैंने चुटकियों में वसूल कर लिया। आप उठिए, खाने का इन्तजाम कीजिए।

उमा- रुपये भला क्या दिये होंगे ! मुझे एतबार नहीं आता।

नईम- आप सरल हैं, और वह एक ही काइयाँ ! उसे तो मैं ही खूब जानता हूँ। अपनी दरिद्रता के दुखड़े गा-गाकर आपको चकमा दिया करता होगा।

कैलास मुस्कराते हुए कमरे में आए और बोले- अच्छा अब निकलिए बाहर यहाँ भी अपनी शैतानी से बाज नहीं आये?

कैलास- फिर कभी बतला दूँगा। उठिए हजरत !

उमा- बताते क्यों नहीं, कहाँ मिले? मिरजाजी से कौन-सा परदा है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book