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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


यह सुनकर उन्होंने साहब बहादुर को सलाम किया और इतनी-सी बात पर फिर किसी अंग्रेज की भेंट को न गये। वंश, प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव पर उन्हें बडा अभिमान था। वे बडे ही रसिक पुरुष थे। उनकी बातें हास्य से पूर्ण होती थीं। संध्या के समय जब वे कतिपय विशिष्ट मित्रों के साथ द्वारांगण में बैठते, तो उनके उच्च हास्य की गूंजती हुई प्रतिध्वनि वाटिका से सुनायी देती थी। नौकरों-चाकरों से वे बहुत सरल व्यवहार रखते थे, यहां तक कि उनके संग अलाव के पास बैठने में भी उनको कुछ संकोच न था। परन्तु उनकी धाक ऐसी छाई हुई थी कि उनकी इस सज्जनता से किसी को अनुचित लाभ उठाने का साहस न होता था। चाल-ढाल सामान्य रखते थे। कोट-पतलून से उन्हें घृणा थी। बटनदार ऊंची अचकन, उस पर एक रेशमी काम की अबा, काला श्मिला, ढीला पाजामा और दिल्लीवाला नोकदार जूता उनकी मुख्य पोशाक थी। उनके दुहरे शरीर, गुलाबी चेहरे और मध्यम डील पर जितनी यह पोशाक शोभा देती थी, उनकी कोट-पतलून से सम्भव न थी। यद्यपि उनकी धाक सारे नगर-भर में फैली हई थी, तथापि अपने घर के मण्डलान्तर्गत उनकी एक न चलती थी। यहां उनकी सुयोग्य अर्द्धांगिनी का साम्राज्य था। वे अपने अधिकृत प्रान्त में स्वच्छन्दतापूर्वक शासन करती थीं। कई वर्ष व्यतीत हुए डिप्टी साहब ने उनकी इच्छा के विरुद्व एक महराजिन नौकर रख ली थी। महराजिन कुछ रंगीली थी। प्रेमवती अपने पति की इस अनुचित कृति पर ऐसी रुष्ट हुईं कि कई सप्ताह तक कोपभवन में बैठी रहीं। निदान विवश होकर साहब ने महराजिन को विदा कर दिया। तब से उन्हें फिर कभी गृहस्थी के व्यवहार में हस्तक्षेप करने का साहस न हुआ।

मुंशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बड़ लडका राधाचरण गत वर्ष डिग्री प्राप्त करके इस समय रुड़की कालेज में पढ़ाता था। उसका विवाह फतेहपुर-सीकरी के एक रईस के यहां हुआ था। मंझली लड़की का नाम सेवती था। उसका भी विवाह प्रयाग के एक धनी घराने में हुआ था। छोटा लड़का कमलाचरण अभी तक अविवाहित था। प्रेमवती ने बचपन से ही लाड़-प्यार करके उसे ऐसा बिगाड़ दिया था कि उसका मन पढ़ने-लिखने में तनिक भी नहीं लगता था। पन्द्रह वर्ष का हो चुका था, पर अभी तक सीधा-सा पत्र भी न लिख सकता था। इसलिए वहां से भी वह उठा लिया गया। तब एक मास्टर साहब नियुक्त हुए और तीन महीने रहे परन्तु इतने दिनों में कमलाचरण ने कठिनता से तीन पाठ पढे होंगे। निदान मास्टर साहब भी विदा हो गये। तब डिप्टी साहब ने स्वयं पढ़ाना निश्चित किया। परन्तु एक ही सप्ताह में उन्हें कई बार कमला का सिर हिलाने की आवश्यकता प्रतीत हुई।

साक्षियों के बयान और वकीलों की सूक्ष्म आलोचनाओं के तत्व को समझना कठिन नहीं है, जितना किसी निरुत्साही लड़के के मन में शिक्षा-रुचि उत्पन्न करना है।

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