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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


कोई-कोई साहब हमीं से नियारियापन करते हैं। चालीस साल से हुजूर, यही काम कर रहा हूं। सवारी को देखा और भांप गए कि क्या चाहते हैं। पैसा मिला और हमारी घोड़ी के पर निकल आए। एक साहब ने बड़े तूम-तड़ाक के बाद घंटों के हिसाब से तांगा तय किया और वह भी सरकारी रेट से कम। आप देखें कि चुंगी ही ने रेट मुकर्रर करते वक्त जान निकाल ली है लेकिन कुछ लोग बगैर तिलों के तेल निकालना चाहते हैं। खैर मैंने भी बेकारी में कम रेट ही मान लिया। फिर जनाब थोड़ी दूर चलकर हमारा तांगा भी जनाजे की चाल चलने लगा। वह कह रहे हैं कि भाई जरा तेज चलो, मैं कहता हूं कि रोज का दिन है, घोड़ी का दम न टूटे। तब वह फरमाते है, हमें क्या तुम्हारा ही घंटा देर में होगा। सरकार मुझे तो इसमें खुशी है आप ही सवार रहे और गुलाम आपको फिराता रहे।

लाट साहब के दफ्तर में एक बड़े बाबू थे। कटरे में रहते थे। खुदा झूठ न बुलवाए उनकी कमर तीन गज से कम न होगी। उनको देखकर इक्के-तांगेवाले आगे हट जाते थे। कितने ही इक्के वह तोड़ चुके थे। इतने भारी होने पर भी इस सफाई से कूदते थे कि खुद कभी चोट न खाई। यह गुलाम ही कि हिम्मत थी कि उनको ले जाता था। खुदा उनको खुश रक्खे, मजदूरी भी अच्छी देते थे। एक बार मै ईंदू का इक्का लिए जा रहा था, बाबू मिल गए और कहा कि दफ्तर तक पहुँचा दोगे? आज देर हो गई है, तुम्हारे घोड़े में सिर्फ ढांचा ही रह गया है। मैंने जवाब दिया, यह मेरा घोड़ा नहीं है, हुजूर तो डबल मजदूरी देते हैं, हुकूम दें तो दो इक्के एक साथ बांध लू और फिर चलूं।

और सुनिए, एक सेठजी ने इक्का भाड़ा किया। सब्जी मंडी से सब्जी वगैरह ली और भगाते हुए स्टेशन आए। इनाम की लालच में मैं घोड़ी पीटता लाया। खुदा जानता है, उस रोज जानवर पर बड़ी मार पड़ी। मेरे हाथ दर्द करने लगे। रेल का वक्त सचमुच बहुत ही तंग था। स्टेशन पर पहुँचे तो मेरे लिए वही चवन्नी। मैं बोला यह क्या? सेठ जी कहते हैं, तुम्हारा भाड़ा तख्ती दिखाओ। मैंने कहा देर करें आप और मेरा घोड़ा मुफ्त पीटा जाय। सेठजी जवाब देते हैं कि भई तुम भी तो जल्दी फरागत पा गए और चोट तुम्हारे तो लगी नहीं। मैंने कहा कि महाराज इस जानवर पर तो दया कीजिए। तब सेठजी ढीले पड़े और कहां, हां इस गरीब का जरूर लिहाज होना चाहिए और अपनी टोकरी से चार पत्ते गोभी के निकाले और घोड़ी को खिलाकर चल दिए। यह भी शायद मजाक होगा मगर मैं गरीब मुफ्त मरा। उस वक्त से घोड़ी का हाजमा बदल गया।

अजब वक्त आ गया है, पब्लिक अब दूसरों का तो लिहाज ही नहीं करती। रंग-ढंग तौर-तरीका सभी कुछ बदल गए हैं। जब हम अपनी मजदूरी मांगते हैं तो जवाब मिलता है कि तुम्हारी अमलदारी है, खुली सड़क पर लूट लो! अपने जानवरों को सेठजी हलुआ-जलेबी खिलाएंगे, मगर हमारी गर्दन मारेंगे। कोई दिन थे, कि हमको किराये के अलावा मालपूए भी मिलते थे।

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