कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 15 प्रेमचन्द की कहानियाँ 15प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग
लुईसा ने विनती के स्वर में कहा- माफ करो सन्तरी, यह मैं नहीं बता सकती और तुमसे प्रार्थना करती हूं यह बात किसी से न कहना। मैं हमेशा तुम्हारी एहसानमन्द रहूंगी। यह कहते-कहते उसकी आवाज इस तरह कांपने लगी जैसे किसी पानी से भरे हुए बर्तन की आवाज।
मैंने उसी सिपाहियाना अन्दाज में कहा- यह कैसे हो सकता है। मैं फौज का एक अदना सिपाही हूं। मुझे इतना अख्तियार नहीं। मैं कायदे के मुताबिक आपको अपने सार्जेन्ट के सामने ले जाने के लिए मजबूर हूं।
‘लेकिन क्या तुम नहीं जानते कि मैं तुम्हारे कमाण्डिंग अफसर की लड़की हूं?
मैंने जरा हंसकर जवाब दिया- अगर मैं इस वक्त कमाण्डिंग अफसर साहब को भी ऐसी हालत में देखूं तो उनके साथ भी मुझे यही सख्ती करनी पड़ती। कायदा सबके लिए एक-सा है और एक सिपाही को किसी हालत में उसे तोड़ने का अख्तियार नहीं है।
यह निर्दय उत्तर पाकर उसने करुणा स्वर में पूछा- तो फिर क्या तदबीर है?
मुझे उस पर रहम तो आ रहा था लेकिन कायदों की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। मुझे नतीजे का जरा भी डर न था। कोर्टमार्शल या तनज्जुली या और कोई सजा मेरे ध्यान में न थी। मेरा अन्त:करण भी साफ था। लेकिन कायदे को कैसे तोडूं। इसी हैस-बैस में खड़ा था कि लुईसा ने एक कदम बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया और निहायत पुरदर्द बेचैनी के लहजे में बोली- तो फिर मैं क्या करूं?
ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे उसका दिल पिघला जा रहा हो। मैं महसूस कर रहा था कि उसका हाथ कांप रहा था। एक बार जी में आया जाने दूं। प्रेमी के संदेश या अपने वचन की रक्षा के सिवा और कौन-सी शक्ति इस हालत में उसे घर से निकलने पर मजबूर करती? फिर मैं क्यों किसी की मुहब्बत की राह का कांटा बनूं। लेकिन कायदे ने फिर जबान पकड़ ली। मैंने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश न करके मुंह फेरकर कहा- और कोई तदबीर नहीं है।
मेरा जवाब सुनकर उसकी पकड़ ढीली पड़ गई कि जैसे शरीर में जान न हो पर उसने अपना हाथ हटाया नहीं, मेरे हाथ को पकड़े हुए गिड़गिड़ा कर बोली- संतरी, मुझ पर रहम करो। खुदा के लिए मुझ पर रहम करो, मेरी इज्जत खाक में मत मिलाओ। मैं बड़ी बदनसीब हूं।
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