कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
आनंदी- न कीजिए। आपने सब कुछ त्यागकर यह कीर्ति प्राप्त की है! मैं आपके यश को नहीं मिटाना चाहती। (गोपीनाथ का हाथ हृदय-स्थल पर रखकर) इसको चाहती हूँ। इससे अधिक त्याग की आकाँक्षा नहीं रखती।
गोपीनाथ- दोनों बातें एक साथ असंभव हैं।
आनंदी- संभव है। मेरे लिए संभव है। मैं प्रेम पर अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर सकती हूँ।
इसके पश्चात् लाला गोपीनाथ ने आनंदी की बुराई करनी शुरू की। मित्रों से कहते, उनका जी अब काम में नहीं लगता। पहले की सी तनदेही नहीं है। किसी से कहते, उनका जी अब यहाँ से उचाट हो गया है, अपने घर जाना चाहती हैं। उनकी इच्छा है कि प्रतिवर्ष तरक्की मिला करे, और इसकी यहाँ गुंजाइश नहीं। पाठशाला कई बार देखी, और अपनी आलोचना में काम को असंतोषजनक लिखा। शिक्षा, संगठन, उत्साह, सुप्रबंध सभी बातों में निराशाजनक क्षति पायी। वार्षिक अधिवेशन में जब कई सदस्यों ने आनंदी की वेतनवृद्धि का प्रस्ताव उपस्थित किया, तो लाला गोपीनाथ ने उसका विरोध किया।
उधर आनंदीबाई भी गोपीनाथ के दुखड़े रोने लगी। ‘यह मनुष्य नहीं है, पत्थर के देवता हैं। इन्हें प्रसन्न करना दुस्तर है। अच्छा ही हुआ कि इन्होंने विवाह नहीं किया, नहीं तो दुखिया इनके नखरे उठाते-उठाते सिधार जाती। कहाँ तक कोई सफाई और सुप्रबंध पर ध्यान दे। दीवार पर एक धब्बा भी पड़ गया, किसी कोने-खुतरे में एक जाला भी लग गया, बरामदों में कागज का एक टुकड़ा भी पड़ा मिल गया, तो आपकी त्योरियाँ बदल जाती हैं। दो साल मैंने ज्यों-त्यों करके निबाहे। लेकिन देखती हूँ, तो लाला साहब की निगाह दिनोंदिन कड़ी होती जाती है। ऐसी दशा में यहाँ अधिक नहीं ठहर सकती। मेरे लिए नौकरी का कल्याण नहीं है, जब जी चाहेगा, उठ खड़ी होऊँगी। यहाँ आप लोगों से मेल-मुहब्बत हो गई है, कन्याओं से ऐसा प्यार हो गया है कि छोड़कर जाने का जी नहीं चाहता।’ आश्चर्य यह था कि और किसी को पाठशाला की दशा में अवनति न दिखाई देती थी, वरन हालत पहले से अच्छी थी।
एक दिन पंडित अमरनाथ की लालाजी से भेंट हो गई। उन्होंने पूछा- कहिए, पाठशाला खूब चल रही है न?
गोपीनाथ- कुछ न पूछिए। दिनोंदिन दशा गिरती जाती है।
अमरनाथ- आनंदीबाई की ओर से ढील है क्या?
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