कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
शहजादा दाराशिकोह अकबर का अनुयायी था। वह केवल नाम का ही अकबर द्वितीय नहीं था, उसके विचार भी वैसे ही थे और उन विचारों को व्यावहारिकता में लाने का तरीका भी बिल्कुल मिलता हुआ नहीं, बल्कि उसके विचार अधिक रुचिकर थे और उनको व्यवहार में लाने के तरीके, नियमों और सिद्धान्तों में अधिक रुचि। उसकी गहन चिन्तन दृष्टि ने देख लिया था कि हिन्दुस्तान में स्थायी रूप से साम्राज्य का बना रहना सम्भव नहीं जब तक कि हिन्दुओं और मुसलमानों में मेल-मिलाप और एकता स्थापित नहीं हो जाती। वह भली-भाँति जानता था कि शक्ति से साम्राज्य की जड़ नहीं जमती। साम्राज्य की स्थिरता व नित्यता के लिए यह आवश्यक है कि शासकगण लोकप्रिय सिद्धान्तों और सरल कानूनों से जनता के दिलों में घर कर लें। पत्थर के मजबूत किलों के बदले दिलों में घर करना अधिक महत्त्वपूर्ण है और सेना के बदले जनता की मुहब्बत व जान छिड़कने पर अधिक भरोसा करना आवश्यक है। दाराशिकोह ने इन सिद्धान्तों का व्यवहार करना प्रारम्भ किया था। उसने एक अत्यन्त रोचक तथा सार्थक पुस्तक लिखी थी जिसमें अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध किया था कि मुसलमानों की नित्यता हिन्दुओं से एकता व संगठन पर आधारित है। उसकी दृष्टि में बाबा कबीरदास, गुरु नानक जैसे महापुरुषों का बहुत सम्मान था क्योंकि दूसरे पैगम्बर मानव जाति में भेद उत्पन्न करते थे लेकिन ये महानुभाव सर्वधर्म समभाव की शिक्षा देते थे।
इस समय हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों जातियाँ दो बच्चों की सी हालत में थीं। एक ने तो कुछ ही दिन पहले दूध छोड़ा था, दूसरा अभी दूध-पीता था। दाराशिकोह का विचार था कि इस दूध-पीते बच्चे पर दूसरे को बलिदान कर देना अहितकर होगा। हालाँकि उसके दूध के दाँत टूट गए हैं, लेकिन अब वे दाँत निकलेंगे जो और भी ज्यादा मजबूत होंगे। दाँत निकलने से पहले ही चने चबवाना अमानवीयता है। क्यों न दोनों बच्चों का साथ-साथ पालन-पोषण हो। अगर एक को अधिक दूध दिया जाये तो दूसरे को पौष्टिक चीजें दी जाएँ।
इस जातीय एकता के लिये दाराशिकोह के मन में भी वही बात आई जो अकबर के मन में आई थी अर्थात् दोनों जातियों के हृदय से विजेता और विजित, आधिपत्य और अधीनता की भावना समाप्त हो जाए। दोनों खुले हृदय से मिलें, आपस में वैवाहिक सम्बन्ध हों, मेल-जोल बढ़े। न कोई हिन्दू रहे न कोई मुसलमान, बल्कि दोनों भारतभूमि के निवासी हों, दोनों में पृथक्-पृथक् होने का कोई चिह्न शेष न रह जाये। शहजादा इस एकता में अकबर से भी एक इंच आगे था। अकबर ने राजाओं की पुत्रियों से विवाह किया था, राजाओं को उचित प्रतिष्ठा प्रदान की थी, हिन्दुओं पर से उसने जजिया का भार हटा दिया था जो उन्हें हिन्दू होने के कारण देना पड़ता था, लेकिन शहजादे का कहना था कि राजकन्याओं से ही विवाह क्यों किया जाए, मुगल परिवार की लड़कियाँ भी राजाओं को क्यों न ब्याह दी जाएँ। उसने भली-भाँति समझ लिया था कि भारतवासी अपनी लड़कियों का विवाह दूसरी जातियों में करने को अपना अपमान तथा तिरस्कार समझते हैं। और जब उनकी लड़कियाँ ली जाती हैं मगर मुसलमानों द्वारा लड़कियाँ दी नहीं जाती तब यह भावना और भी दृढ़ हो जाती है। सच्चा मेलजोल उसी दशा में होगा जब लड़की और लड़के में कोई अन्तर शेष न रह जाये। उसने स्वयं अग्रगामी बनना चाहा था, केवल अवसर की प्रतीक्षा में था।
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