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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


शनैःशनैः परदा हटने लगा। लाला गोपीनाथ को अब परवशता ने साहित्य सेवी बना दिया था। घर से उन्हें घर वालों से कुछ माँगते बहुत संकोच होता था। उनका आत्मसम्मान जरा-जरा-सी बातों के लिए भाइयों के सामने हाथ फैलाना अनुचित समझता था। वह जरूरतें आप पूरी करना चाहते थे। घर पर भाइयों के लड़के इतना कोलाहल मचाते कि उनका जी कुछ लिखने में न लगता। इसलिए उनकी कुछ लिखने की इच्छा होती, तो बेखटके पाठशाला चले जाते। आनंदीबाई भी यहीं रहती थीं। यहाँ कोई शोर न था, न गुल। एकांत में काम करने में जी लगता था। भोजन का समय आ जाता, तो वहीं भोजन भी कर लेते। कुछ दिनों बाद उन्हें लिखने में कुछ असुविधा होने लगी। (आँखें कमजोर हो गई थीं) तो आनंदी ने लिखने का भार अपने सिर ले लिया। लाला साहब बोलते थे, आनंदी लिखती थी। गोपीनाथ की प्रेरणा से उसने हिंदी सीख ली थी, और थोड़े ही समय में इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि उसे लिखने में जरा भी हिचक न होती। लिखते समय कभी-कभी ऐसे शब्द और मुहावरे सूझ जाते कि गोपीनाथ फड़क उठते, उनके लेख में जान-सी पड़ जाती। वह कहते, यदि तुम स्वयं कुछ लिखो, मुझसे बहुत अच्छा लिखोगी। मैं तो बेगार करता हूँ। तुम्हें परमात्मा की ओर से यह शक्ति प्रदान हुई है।

नगर के लालबुझक्कड़ों में इस सहकारिता पर टीका-टिप्पणियाँ होने लगीं। पर विद्वज्जन अपनी आत्मा की शुचिता के सामने ईर्ष्या के व्यंग्य की कब परवाह करते हैं! आनंदी कहती, यह तो संसार है, जिसके मन में जो आवे, कहे, मैं उस पुरुष का निरादर नहीं कर सकती, जिस पर मेरी श्रद्धा है। पर गोपीनाथ इतने निर्भीक न थे। इनकी सुकीर्ति का आधार लोक-मत था। वह उसकी भर्त्सना न कर सकते थे। इसलिए वह दिन के बदले रात को रचना करने लगे। पाठशाला में इस समय कोई देखनेवाला न होता था। रात की नीरवता में खूब जी लगता। आराम कुर्सी पर लेट जाते। आनंदी मेज के सामने कलम हाथ में लिए उनकी ओर देखा करती। जो कुछ उनके मुख से निकलता, तुरंत लिख लेती। उसकी आँखों से विनय और शील, श्रद्धा और प्रेम की किरणें-सी निकलती हुई जान पड़तीं। गोपीनाथ जब किसी भाव को मन में व्यक्त करने के बाद आनंदी की ओर ताकते कि वह लिखने के लिए तैयार है या नहीं, तो दोनों व्यक्तियों की निगाहें मिलतीं और आप-ही-आप झुक जातीं। गोपीनाथ को इस तरह काम करने की ऐसी आदत पड़ती जाती थी कि जब किसी कार्यवश यहाँ आने का अवसर न मिलता, तो वह विकल हो जाते थे।

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