कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
और अत्यन्त खेद का विषय है कि जनता का भी यही विचार है यद्यपि उसकी आवाज आपके कानों तक नहीं पहुँची। अब विचार कीजिए कि यह भावना उत्पन्न हो जाना कितना भयंकर है क्योंकि जब अन्य शक्तियाँ देखेंगी कि भारत विजय या विश्वविजय हेतु सन्नद्ध है तो वे शक्ति-संतुलन के लिए अपनी सेना बढ़ाएँगी और क्या आश्चर्य है कि आपस में संगठित होकर हिन्दुस्तान पर ही चढ़ दौड़ें। जहाँपनाह! डाक्टर बर्नियर साहब ने कहा है कि अब भारत का यह संकल्प होना चाहिए कि लड़ेंगे, मरेंगे पर कंधार नहीं छोड़ेंगे। ये उनके मुँह से निकले हुए शब्द हैं। मैं उनकी अनुमति से कुछ शब्द और बढ़ाता हूँ अर्थात् कंधार को नहीं छोड़ेंगे! नहीं छोड़ेंगे! सारा संसार उलट-पलट हो जाये मगर कंधार को नहीं छोड़ेंगे! सारा संसार इकट्ठा हो जाये, हम मिट्टी में मिल जायें मगर हमसे कंधार नहीं छूटेगा! महानुभावो! ध्यान तो दीजिए यह सलाह है! एक छोटे से प्रान्त के लिये एक शानदार साम्राज्य को खतरे में डालना! मैं यह नहीं कहता कि खतरा सन्निकट है मगर खतरा सिर पर भी होता तो डाक्टर साहब के कथनानुसार हिन्दुस्तान को जान पर खेल जाना चाहिये था। यह सलाह नीतिसम्मत नहीं। नीतिसम्मत सलाह उसे कहते हैं कि साँप मर जाए और लाठी न टूटे। माना कि आपने पुनः कंधार को एक जबर्दस्त अभियान भेजा। मान लीजिए कि मामला लम्बा खिंचा। ईरान का शाह अपनी पूरी शक्ति के साथ आ डटा तो आपको सहायता की आवश्यकता हुई। और इस प्रकार आठ महीने बीत गये। नवें महीने में जब बर्फ पड़ने लगी तो आपको विवश होकर हटना पड़ा और शत्रु ने उस अवसर का दिल खोलकर लाभ उठाया। बताइये अपमान, दुर्दशा और असफलता के अतिरिक्त क्या हाथ लगा? आप कहेंगे कि हम पूरी शक्ति से कंधार पर आक्रमण करेंगे और आठ महीने में ही उसे अधिकार में ले लेंगे। आप पूरी शक्ति से उधर गये, इधर हमारी जरा-जरा सी हलचल की टोह लेने वाले दक्खिनवासी, मरहठे और जाठ मैदान खाली देखकर आ चढ़े। बताइये, उस समय भारत की सत्ता क्या करेगी? क्या किले की दीवारें लड़ेंगी या कलम पकड़ने वाले मुंशी, या सौदा बेचने वाले व्यापारी?
जहाँपनाह! मैं डाक्टर साहब से सहमत हूँ कि सत्ता को अपना सिक्का जमाने की कोशिश करनी चाहिये। निस्सन्देह यदि उसकी धाक जम जाये तो बहुत अच्छा है मगर इसके लिए सत्ता को ही दाँव पर लगा देना कौन सी नीति है? यदि देश की वास्तविक शक्ति को आघात पहुँचाए बिना आप अपनी धाक जमा सकते हैं तो शौक से जमाइये, मगर मैं एक बार नहीं सौ बार कहूँगा कि यदि ऐसा करने से देश कमजोर होता हो तो इसका विचार भी मत कीजिए। दो अभियानों का असफल हो जाना स्पष्टतः सिद्ध करता है कि कंधार को जीतना मुँह का निवाला नहीं। लगभग आधी सदी के खूनखराबे के बाद भी दक्खिन के देशों का मुकाबले के लिए तैयार रहना उनकी आन्तरिक शक्ति का ज्वलन्त प्रमाण है। मैं डंके की चोट कहता हूँ कि यह साम्राज्य उन दोनों उद्दण्ड शत्रुओं का सामना एक साथ नहीं कर सकता। कंधार और दक्खिन, दोनों पर विजय पाना कठिन है। इनमें से एक ले लीजिये, कंधार या दक्खिन। मेरी सलाह यह है कि कंधार पर दक्खिन को वरीयता दीजिएगा।
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