कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
जहाँपनाह! मेरा विचार है कि संसार के प्रत्येक प्रसिद्ध देश का पतन इसी कारण से हुआ कि उसने अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाने की कोशिश की। उनके दुस्साहस लोभ-लालच की सीमा तक पहुँच गये। ईरान, यूनान, इटली, रोम सबने सीमा से अधिक पाँव फैलाये। केवल सैन्य शक्ति तथा तलवार के बल पर दूर-दूर के देशों को अधिकार में रखना चाहा, लेकिन परिणाम क्या हुआ। उन्हें अधीन करने के अभिमान में अपनी शक्ति खो बैठे, यहाँ तक कि न केवल अपने अधिकृत क्षेत्रों से ही हाथ धो बैठना पड़ा बल्कि अपने जत्थे को भी खो बैठे। उनका नाम इतिहास से सदा के लिए मिट गया। इस गलती में भारत क्यों पड़े? अन्य देशों से प्रेरणा क्यों न ग्रहण करे? हिन्दुस्तान विस्तृत देश है। यदि हिन्दुस्तान की आबादी पच्चीस वर्षों में दोगुनी भी हो जाए तो सदियों तक तंगी की शिकायत भी सुनने को नहीं मिलेगी। कंधार को अधीनस्थ देशों में सम्मिलित करना युद्ध के खर्चे को अत्यधिक बढ़ाना है क्योंकि वहाँ की पहाड़ी जातियाँ सदा झगड़े और उपद्रव का बोलबाला रखेंगी और उन विद्रोहों को दबाने के लिए एक भारी सेना रखनी पड़ेगी। बस, केवल साम्राज्य को विस्तार देने के विचार से कंधार पर आक्रमण करना या अभियान भेजना मेरी दृष्टि में उचित नहीं है।’
उस समय डाक्टर बर्नियर विचार-प्रवाह में डूबे हुए थे। उन्होंने हेनरी बोजे की आपत्तियों का खण्डन करने के लिए कुछ नोट किया था। उनके चेहरे से तनिक भी उत्साह या उतावलापन नहीं झलक रहा था। लोगों की दृष्टि उन पर लगी हुई थी कि देखें अब ये क्या उत्तर देते हैं। अन्ततः वे कई मिनट के असमंजस के पश्चात् बोले, ‘महानुभावो! मुझे अत्यन्त खेद है कि इस समय मुझे कुछ अरुचिकर सच्चाइयों को प्रकट करना पड़ता है। परन्तु क्योंकि सच्चाइयाँ बहुत कम रुचिकर होती हैं, आशा है कि आप लोग मुझे क्षमा करेंगे। मेरे विद्वान् मित्र हेनरी बोजे साहब ने कहा है कि शासन की स्थापना और स्थायित्व नैतिक गुणों पर आधारित है, न कि प्राकृतिक गुणों पर। जिसका अर्थ यह है कि ऐ भूखण्ड के बादशाह! यह मार-काट किसलिए? यह लड़ाई-झगड़ा किसलिए? यह पैदल व सवार किसलिए? इन्हें नरक में फेंकिए। कुछ ईश्वरवादी, पवित्र, धर्मात्मा बुजुर्गों से कहिए कि जनपथ पर खड़े होकर उपदेश दिया करें, बस बाकी अल्लाह-अल्लाह खैर सल्ला। फिर देखिये कि कैसे झन्नाटे का शासन चलता है। आश्चर्य है कि मिस्टर बोजे साहब व्यापक अनुभव होने पर भी ऐसी बेतुकी गलती में पड़ गये। हम यह नहीं कहते कि जो सिद्धान्त उन्होंने बताया है वह गलत है। लेशमात्र भी नहीं, वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन सिद्धान्त का ठीक होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि व्यावहारिक रूप में वह सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता हो। सम्भवतः ये विद्वान् यूटोपिया के लोकतंत्र का सपना देख रहे थे। वे भूल गये थे कि यूटोपिया का अस्तित्व सपने तक ही सीमित है और यहाँ उसकी चर्चा करना निरर्थक है। मैं मिस्टर बोजे से पूछता हूँ, भगवान् ने अच्छाई के साथ बुराई भी पैदा की थी। उनका उत्तर होगा नहीं, भगवान् ने अच्छाई पैदा की। अच्छाई की अनुपस्थिति बुराई है। इस पर भी जिधर देखिए बुराई का ही बोलबाला है। अच्छाई और बुराई की जो पहली लड़ाई अदन के बाग में हुई, उसमें भी मैदान बुराई के ही हाथ रहा। संसार में मशाल लेकर ढूँढ़िये तब भी अच्छे आदमी कठिनाई से इतने मिल सकेंगे जो एक नगर बसा सकें। सारा संसार बुराई से भरा हुआ है। ऐसी दशा में क्योंकर सम्भव है कि कोई शासन बना रह सके जब तक कि वह आतंकियों, उपद्रवियों, विद्रोहियों, अत्याचारियों के दमन के लिए सदा तत्पर न रहे। भगवान् से हमारी प्रार्थना है कि मिस्टर बोजे किसी देश के बादशाह हों और वे अपने सिद्धान्तों का पालन करके सारे संसार को पाठ पढ़ाएँ कि नैतिक गुणों पर शासन कैसे बना रहता है।
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