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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


जहाँपनाह! कौन नहीं जानता कि मनुष्य जाति के कर्त्तव्य पृथक्-पृथक् हैं। बाप का कर्त्तव्य बेटे के कर्त्तव्य से पृथक् है। बाप का कर्त्तव्य बेटे की शिक्षा-दीक्षा, रोटी-कपड़ा और अन्य आवश्यकताएँ उपलब्ध कराना है। और बेटे का कर्त्तव्य है माता-पिता की आज्ञा का पालन करना और उनकी सेवा करना। बादशाह का कर्त्तव्य जनता के कर्त्तव्य से बिल्कुल पृथक् है। प्रजापालन तथा न्यायप्रियता बादशाहों के उच्चतम कर्त्तव्य हैं और आज्ञापालन तथा कृतज्ञता जनता के। यदि पिता अपने बेटे को मारे तो उसे कोई भी बुरा नहीं कह सकता, लेकिन पिता की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल पुत्र का एक कठोर वाक्य कहना भी पाप है। यदि सामान्य व्यक्ति बिना आज्ञा के दूसरे की वस्तुएँ ले ले तो उसे चोरी या लूट कहेंगे, लेकिन अपने अधीन करने के लिए एक बादशाह का दूसरे बादशाह पर आक्रमण करना लेशमात्र भी अनुचित नहीं है। राज्य का विस्तार करना तो बादशाहों का सर्वाधिक मुख्य कर्त्तव्य है क्योंकि प्रजापालन उसका एक विशेष अंग है। राज्य-विस्तार से व्यापार का विकास होता है, उद्योग-धन्धों की प्रगति होती है, प्रजा का राष्ट्रीय उत्साह बढ़ता है, देशभक्ति उत्पन्न होती है, अपनी जाति के कारनामों पर गर्व होता है। क्या ये सब विशेष और लाभदायक परिणाम नहीं हैं? प्राचीन राष्ट्रों के विनाश को राज्य-विस्तार से सम्बद्ध करना बुद्धिमानी के प्रतिकूल है। रोम, ईरान तथा यूनान का नाम इस कारण नहीं मिटा कि उन्होंने अपने अधिकृत क्षेत्र को विस्तार दिया वरन् इस कारण से कि उनमें आलस्य, भीरुता, आरामतलबी, विषय लोलुपता और दुराचरण बढ़ गया। वे प्रकृति के उस कानून से प्रभावित हो गये जिसे प्रकृति का चुनाव कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से समस्त जीवधारियों में वह खींचतान, वह आपाधापी मची हुई है जिसे जीवन-संघर्ष कहें तो असंगत न होगा। इस जीवन-संघर्ष में शक्तिशाली की विजय होती है और जो दुर्बल तथा निर्बल हैं वे हारते हैं और उनका नाम अशुद्ध लेख की भाँति सदा के लिए जीवन-पृष्ठ से मिट जाता है। इस कानून का प्रभाव मनुष्य और पशु, सभी पर एक समान होता है। पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं और सैकड़ों बड़ी-बड़ी जातियाँ गुमनाम, क्योंकि एक विशेष अवधि के पश्चात् प्रत्येक जाति में वे बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो धन, ऐश्वर्य, बड़प्पन तथा वैभव से सम्बद्ध होती हैं। इसके अतिरिक्त काल की गति प्रगति पर है और जब कोई एक जाति दीर्घकाल तक बनी रहती है तो उसमें सहसा पुरानेपन की गन्ध आने लगती है। और, क्योंकि प्रगतिशीलता एक मानवीय गुण है, यह जाति अपनी परम्पराओं, सभ्यता और संस्कृति में ऐसे परिवर्तन नहीं कर सकती जो वर्तमान काल के अनुकूल हों। अन्ततः नयी-नयी जातियाँ उठ खड़ी होती हैं जिनका उत्साह नया होता है, पुरानी जातियाँ उनका सामना नहीं कर सकतीं। क्या मिस्टर बोजे का आशय यह है कि हिन्दुस्तान इस जीवन-संघर्ष से मुँह फेर ले और डरपोक माना जाय और दूसरे नये देशों का शिकार बने? देखिये, आज योरुप में कैसे उत्साह से जीवन-संघर्ष हो रहा है। कौन सी सत्ता ऐसी है जो अपनी सीमाओं से बाहर पाँव फैलाने के लिये प्राणपन से प्रयास नहीं कर रही है। जहाज बनाए जा रहे हैं, उन पर हजारों मील की भयंकर यात्रा की जा रही है, कौड़ियों की भाँति रुपया फूँका जा रहा है और आदमियों की जानें अत्यल्प मूल्य पर बेची जा रही हैं। क्यों? इसलिए कि नयी बस्तियाँ बनाई जाएँ, देश का व्यापार विस्तृत हो, धन में वृद्धि हो और देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए जगह बने। दो सदियों में फ्रांस की जनसंख्या चौगुनी हो जायेगी। यदि अभी से रोकथाम न की जाए तो उसके लिए क्या जीवनाधार होगा। हम यह नहीं कहते कि इस समय हिन्दुस्तान को तंगी अनुभव हो रही है। नहीं, अभी बहुत से विस्तृत क्षेत्र नितान्त निर्जन हैं लेकिन निकट भविष्य में यहाँ भी आवश्यक रूप से तंगी अनुभव होगी। जनसंख्या का बढ़ना एक प्राकृतिक नियम है, इसे कोई नहीं रोक सकता। हिन्दुस्तान योरोपीय देशों का अनुसरण और भविष्य के लिए अभी से प्रयास क्यों न करे। आगत काल को वर्तमान काल से अधिक मूल्यवान समझा जाता है।’

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