कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
आनंदमोहन- ''कोई हर्ज नहीं। तिमिर-लोक ही में तो सिकंदर को अमृत मिला था।''
दयाशंकर- ''अंतर इतना ही है कि तिमिर-लोक में पैर फिसले, तो पानी में गिरोगे और यहाँ फिसले, तो पथरीली सड़क पर।''
(ज्योतिस्वरूप आते हैं)
ज्योतिस्वरूप- ''सेवक भी उपस्थित हो गया। देर तो नहीं हुई? डबलमार्च करता आया हूँ।''
दयाशंकर- ''नहीं, अभी तो देर नहीं हुई। शायद आपकी भोजनाभिलाषा आपको समय से पहले खींच लाई।''
आनंदमोहन- ''इनका परिचय कराइए। मुझे आपसे देखादेखी नहीं है।
दयाशंकर- (अँगरेजी में) मेरे सुदूर के संबंध में साले होते हैं। एक वकील के मुहर्रिर हैं। जबर्दस्ती नाता जोड़ रहे हैं। सेवती ने निमंत्रण दिया होगा। मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं। यह अँगरेजी नहीं जानते।''
आनंदमोहन- ''इतना तो अच्छा है। अँगरेजी में ही बातें करेंगे।''
दयाशंकर- ''सारा मज़ा किरकिरा हो गया। कुमानुषों के साथ बैठकर खाना, फोड़े के आप्रेशन कराने के बराबर है।''
आनंदमोहन- ''फिर किसी उपाय से इन्हें बिदा कर देना चाहिए।''
दयाशंकर- ''मुझे तो चिंता यह है कि अब संसार के कार्यकर्त्ताओं में हमारी और तुम्हारी गणना ही न होगी। पाला इसी के हाथ रहेगा।''
आनंदमोहन- ''खैर ऊपर चलो। आनंद तो जब आवे कि इन महाशय को आधे पेट ही उठना पड़े।''
(तीनों आदमी ऊपर जाते हैं)
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