कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
|
9 पाठकों को प्रिय 340 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
दयाशंकर- ''अरे! कमरे में भी रोशनी नहीं, अँधेरा घुप है। लाला ज्योतिस्वरूप, देखिएगा कहीं ठोकर खाकर न गिर पडिएगा।''
आनंदमोहन- ''अरे ग़ज़ब...।''
(अलमारी से टकराकर धम् से गिर पड़ता है)
दयाशंकर- ''लाला ज्योतिस्वरूप, क्या आप गिर पड़े! चोट तो नहीं आई?''
आनंदमोहन- ''अजी, मैं गिर पड़ा। कमर टूट गई। तुमने अच्छी दावत की।''
दयाशंकर- ''भले आदमी, सैकड़ों बार तो आए हो। मालूम नहीं था कि सामने अलमारी रक्खी हुई है? क्या ज्यादा चोट लगी?''
आनंदमोहन- ''भीतर जाओ। थालियाँ लाओ और भाभीजी से कह देना कि थोड़ा-सा तेल गर्म कर लें। मालिश कर लूँगा।''
ज्योतिस्वरूप- ''महाशय, यह आपने क्या रख छोड़ा है। जमीन पर गिर पड़ा।''
दयाशंकर- ''उग़ालदान तो नहीं लुढ़का दिया। हाँ, वही तो है। सारा फ़र्श खराब हो गया।''
आनंदमोहन- ''बंधुवर, जाकर लालटेन जला लाओ। कहाँ लाकर कालकोठरी में डाल दिया।''
दयाशंकर- (घर में जाकर) ''अरे! यहाँ भी तो अँधेरा है! चिराग़ तक नहीं। सेवती, कहाँ हो?''
सेवती- ''बैठी तो हूँ।''
दयाशंकर- ''यह बात क्या है? चिराग़ क्यों नहीं जले? तबीयत तो अच्छी है?''
सेवती- ''बहुत अच्छी है। वाह, तुम आ तो गए। मैंने समझा था कि आज आपका दर्शन ही न होगा।''
दयाशंकर- ''ज्वर है क्या? कब से आया है?''
|